Wednesday, March 23, 2016

उन्वान ¦ क्या अहले हदीस इजमा को नहीं मानते ???

                  बिस्मिल्लहिर्रह्मनिर्रहीम



उन्वान ¦ क्या अहले हदीस इजमा को नहीं मानते ???


आज इस पुर फ़ितन दौर  मे आवाम  को ये बावर कराया  जा  रहा है  की अहले हदीस  हज़रात इजमा  व कयास  को नहीँ  मानते. एक बात जेहन मे  होनी चाहिए मस्लक अहले  हदीस  को जब तक  बदनाम  नहीँ किय जा  सकता  जब तक झूट से काम ना  लिया  जाये,


इजमा  व  कयास  क हुक्म कुरान  व हदीस  मे मौजूद है, और अहले  हदीस  हज़रात इजमा वा  कयास  को मानते  हैं, मिसाल के तौर पर,


यहूदी  कहते  हैं मुसलमान  हज़रत मूसा को नहीँ मानते, और मुसलमान  कहते हैं यहूदी हज़रत मूसा को नहीँ मानते,

इसी तरह हम इजमा वा  कयास को उस तरह  नहीँ मानते जिस तरह हनफी मुकल्लिद मानते हैं, और जिस तरह हम इजमा  वा कयास  को मानते  हैं उस तरह हनफी  मुकल्लिद  नहीँ मानते,

कुरान  वा हदीस मे इजमा  का  वाजेह  हुक्म  मौजूद  है, और  जो इस  बात  का  दावा  करते  हों की वो कुरान वा हदीस पर अमल  करता है तोह उमूमी  तौर  पर उसका  दावा  इजमा  पर भी होता  है,


क्या  अहले  हदीस इजमा  को नहीं  मानते ??


अहले  हदीस को ग़लत साबित करने  के लिये ये बात कही जाती है के अहले हदीस उम्मत के इजमे को नहीं मानते, लेकिन आम तौर पर इस सिलसिले  मे  बात  करने  वालों  को खुद इजमा की तारीफ   मालूम  नहीं  होती  है.


कभी वो अक्सरियत  को इजमा  करार  देते  हैं  तो कभी  आवाम  मे राइज़ अमल  को, और बाज इजमा के दावे  महज़  दावे ही होते  हैं, जब वाकई  तह्कीक  की जाती  है तो खुद सलफ  मे इस सिलसिले  मे इख्तेलाफ  निकल  आता  है, बलके  खुद  इजमा  का  दावा करने  वालों ही की जमात के काबिल ए जिक्र  अफ्राद इस किस्म  के इजमा की तर्दीद कर चुके  होते हैं


इजमा की तारीफ़  (definition)


अबुल मों 'अली  अल  जवैनी अपनी  किताब अल वर्कात  मे फ़रमाते  हैं


" इजमा  ये है की किसी ज़माने के उलेमा पेश आमदा मामले  मे किसी  एक फैसले पर मुत्तफिक हो जायें. और उलेमा ये हमारी  मुराद फुकहा  हैं  और पेश आमदा  मुआम्ले  से मुराद शरई  मामला  है "
(पेज 24)


अहले हदीस के नज़दीक  साबित शुदह इजमा  हक  है, अहले हदीस उस इजमा  को नहीं मानते जो महज़ घुमान  और  बे दलील  हो

अहले हदीस के नज़दीक इजमा ए  उम्मत  खुद एक दलील है  क्युँकि  अल्लाह ताला  ने  सबीलुल  मोमिनीन  की खिलाफ वरजी  को काबिल ए सजा  जुर्म  करार दिया है,

अल्लाह ताला का फ़रमान है


"  और जो शख्स  इस रसूल से इख्तेलाफ  करे जबकी  हिदायत  उस पर वाजेह हो चुकी हो और ईमान वालों का  रास्ता  छोडकर  कोई और ही इख्तियार  कर ले तो हम उसे वहीँ मोड़ देंगे  जहाँ  उसने  खुद रुख किया है  और जहन्नुम  मे पहुँचा देंगे  और वो बहूत ही बुरा ठिकाना  है "

(सुरह  निसा  आयत  115)


इस आयत  से मालूम होता  है की जिस चीज़ पर सारे अहले ईमान जमा  हो  जायें  उसके खिलाफ  करना  जायेज  नहीं, अहले ईमान  का किसी चीज़ पर जमा  होना इस बात की अलामत  है की वो चीज़ अल्लाह के नज़दीक हक  है, क्युँकि अहले ईमान को अल्लाह ने बातिल  पर मुत्तफिक होने से कयामत  तक  के लिये महफूज़ कर दिया है


नबी ए  करीम मुहम्मद सल्ल॰  ने  फरमाया


" यानी ऐसा नहीं हो सकता  के पूरी उम्मत एक गलत बात को सहीह समझने  लगे "

(जमेअ  तिर्मिजि  रावी इब्ने उमर  हदीस  1848)


हर दौर मे एक या  कई अहले इल्म  ऐसे ज़रूर होंगे जो हक  पर कायम  रहेंगे. बाज अहले इल्म का खता  कर जाना मुमकिन  है लेकिन ये मुमकिन नहीं के किसी गुमराही पर पूरी  उम्मत  मुत्तफिक  हो जाये,

एक बात याद रखें की किसी का भी किसी चीज़ पर जमा होना इजमा नहीं, बल्की  कुरान  व सुन्नत की गहरी  सोच रखने  वाले  उलेमा  हों, क्युँकि तहकीक से आजिज होने का इकरार  करके किसी की  तक्लीद करने  वाले  पर फुकह व आलिम  का इत्तेलाक कैसी  हो सकता  है ??


उलेमा वही  हैं जो अम्बिया से मंकूल इल्म  के वारिस  हों, और नबी मुहम्मद  सल्ल॰  ने अपने बाद  कुरान व हदीस  क इल्म  छोड़ा  है  ना की  फर्जी  कयास आराईया, लिहाजा  आलिम  कहलाने  का  हकदार  वही  है  जिसका कल्ब  कुरान  व सुन्नत से मुजय्यन हो,


अहले हदीस  इजमा  को  मानते  हैं लेकिन  क्या इजमा  का हर दावा  बेगैर दलील  वा  तह्कीक के  मान लिया  जाये ???


इसी लिये  इमाम अहमद बिन हम्बल रह फ़रमाते  हैं


"जो इजमा का दावा करे उसने झूट बात  कही  है,बहुत  मुम्क़िन है  लोगों  मे इख्तेलाफ हुआ हो "
अब आखिर मे लोगों के खुद के बनाये हुए ऐसे झूठे इजमा को  भी  देख लेते हैं


1- देवबंदी मुफ्ती मुहम्मद रशीद लुधियानवी रफूल यदैन  के मुताल्लिक़ लिखते हैं के

" इन मसायल मे बिल इत्तेफ़ाक ए उम्मत (इजमा ए उम्मत ) दोनो सूरते (रफुल यदैन करना और ना करना ) जायेज है " (इख्तेलफात ए उम्मत पेज 272)

वहीँ दूसरी तरफ़

एक और देवबंदी आलिम जमील अहमद नजीरी  रफूलयदैन के इजमा का इनकार करते हुए कहते हैं के

"  रफुलयदैन मन्सूख है "

(रसूल ए अकरम सल्ल॰  का तरीका ए नमाज़  पेज 198)

2- देवबंदी मुफ्ती रशीद अहमद लुधियानवी बयान करते हैं के नमाज़ के बाद की इज्तेमायी दुआ बिद्दत है

उन्होने लिखा

" नमाज़ के बाद की इज्तेमायी दुआ का मर्वजा तरीका बिल इजमा बिदह कबीहा है "
" फ़र्ज  नमाज़ के बाद हाथ उठा कर दुआ माँगना साबित नहीं  है "

(नमाज़ के बाद दुआ पेज 19)

दूसरी तरफ़, अनवर खुर्शीद देवबंदी अपनी किताब मे लिखते हैं

" फ़र्ज नमाजो के बाद हाथ उठा कर दुआ माँगना हुजूर मुहम्मद सल्ल॰  और सहाबा ए  किराम  से कौलन वा अमलन  साबित है, हुजूर अलैहिस्सलाम  और सहाबा ए किराम ने नमाज़ के बाद हाथ उठा कर दुआ माँगी है इन्फीरादी भी और इज्तेमायी भी "

(हदीस  और  अहले हदीस पेज 478)

3- अमीन ओंकारवी तक्लीद ए शख्सी के बारे मे कहते है

"तक्लीद  ए शख्सी पर इजमा हो गया है "

(फतूहात ए सफ़दर 1/84)

दूसरी तरफ़ मुफ्ती रशीद अहमद गंगोहि फ़रमाते हैं

"तक्लीद  ए  शख्सी पर कभी इजमा हूआ ही नहीं "

(तज्कीरत उल रशीद )

इसी तरह से कई तरह के इजमों के देवबंदी हज़रात खुद  अपने आलिमो के इज्मे  रद्द  कर जाते हैं और उल्टा हमारे बारे मे झूट आवाम मे फैलाते हैं की अहले हदीस इजमा को नहीं मानते, अपनी बात का यहीं इख्तेमाम करता हूं


अल्लाह ताला हम सबको कहने सुनने और  उस पर अमल करने की तौफीक अता फ़रमायें. और  झूट फैलाने वाले ना 'अहल मौलवियों को समझ अता फ़रमाएँ.

आमीन
मिन जानिब तहफ्फुज ए सुन्नत वा अकायेद