Monday, August 31, 2020

MUSALMANO NE APNI TAREEKH SE KUCH NAHIN SEEKHA AUR NA SEEKHNA CHAHTE HAIN





मुसलमानों ने अपनी तारीख से कुछ नहीं सीखा और ना सीखना चाहते हैं,

रसूल अल्लाह मुहम्मद (SWS) की साफ नसीहतों के बाद भी मुसलमान उनकी बातों को नज़र अंदाज़ करके जो भी कदम उठाएंगे उससे उनको ज़लालत के सिवा कुछ नहीं मिलेगा और ना ही कभी मिला है,

मुहम्मद साहब ने ऐसी जगह नमाज़ पढ़ने से मना फरमाया है जहां ज़माना ए जाहिलीयत के लोग इबादत करते हो, और अपने बाद सहाबा किराम को हुकम दिया कि जंग के दौरान भी कुफ्फर के इबादतगाहों कि हिफाज़त की जाए,

फलस्तीन फतह के बाद हज़रत उमर जब फलस्तीन पहुंचे तब यहूदियों के इसरार पर के वो माबद ए हैकल में नमाज़ अदा कर ले, लेकिन हज़रत उमर ने मना कर दिया और कुछ दूरी पर नमाज़ अदा की, और यहूदी इबादतगाह का पास वा लिहाज़ बना रहा और सदियों तक मुसलमान यहूदी और इसाई अमन से फलस्तीन में रहते रहे,
अब एक एक उदाहरण से बात समझना चाहिए

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत के दौर में हजारों मजार मौजूद थीं लेकिन तालिबान की हुकूमत बनने के बाद उन मजार को तोड़ना दूर की बात उल्टा बामियान में बुध की मूर्ति को तोड़ना बेहद अहमकाना हरकत थी,

मुहम्मद साहब ने मुसलमानों को हुकम दिया है कि कहीं भी पक्की क़ब्र देखो उसे ज़मीन के बराबर कर दो, लेकिन तालिबान की हुकूमत बनने के बाद इस पर अमल नहीं किया गया, और चल दिए बामियान में बुध की मूर्ति तोड़ने ,

और इसका खामियाजा मासूम मुसलमानों ने भुगता, क्या आपको नहीं मालूम इसी कांड के बाद ही बौद्ध आतंकवाद का नया चेहरा असिन विराथू के नाम से बर्मा में जन्म लिया,

आप उसका इंटरव्यू सुनिए उसने साफ कहा है कि बामियान की बुध प्रतिमा तोड़ने के बाद से ही वो बेचैन था, और उसने 15 साल की अथक महनत के बाद बर्मा से रोहिंग्या मुसलमानों का सफाया कर दिया,

कहना बजा ना होगा कि तालिबान की उस अह्मकाना हरकत का हर्जाना रोहिंग्या के मुसलमानों ने भुगता, और अब तुर्की सरकार की अहमकना हरकत का खामियाजा यूरोप की उन तमाम मस्जिदों को भुगतना पड़ेगा जहां के मुसलमान इस मुहिम में शामिल है कि उन मस्जिदों को दोबारा मस्जिद बनाया जाए जो इस वक़्त चर्च में तब्दील है ,
भारत में भी इसका असर पड़ेगा, वक़्त सब दिखा देता है,
साभार: Umair Salafi Al Hindi

Sunday, August 30, 2020

AAP-BEETI UMAIR SALAFI AL HINDI





आप बीती - Umair Salafi Al Hindi

तकरीबन आज से 10 या 11 साल पहले की बात है जब मुझे दीन का इल्म और अहले बातिल से बहेस करने का बहुत ज़्यादा जज्बा हुआ करता था, मेरी अक्सर कोशिश होती के नई से नई किताबों का मुताला करू,

ऐसा कोई जलसा या इज्तेमा ना होता जिसमें में कोई नई किताब खरीद कर ना लाता, बहस और मुबाहिसों के लिए अक्सर दलायेल के लिए कई बार इस्लामिक लाइब्रेरी का रुख भी किया और इस्तेफादा हासिल हुआ , मैंने अपनी ज़िन्दगी में कई फिर्कों से बहस वा मुबाहेसा किया था,

उसी दौरान घर में मुझे एक किताब मिली जो के कबाड़ में पड़ी हुई थी और घर में रंगाई वा पुताई में सफाई के दौरान बाहर आ गई थी, उस किताब के कवर पर लिखा था

" मकाम ए हदीस"

मैंने इस किताब का टाइटल देख कर उसे पड़ना शुरू कर दिया ये सोचकर के शायद इस किताब में हदीस के मकाम का ज़िक्र होगा, लेकिन यकीन मानिये जैसे जैसे मैं इस किताब के पन्ने उलटते जा रहा था मेरे माथे पर पसीना निकलता जा रहा था, एक अजीब कैफियत तारी थी, ऐसा लगता था जैसी मेरे मनहज का मजबूत किला डहता जा रहा हो, एक अजीब सी बेचैनी थी,

दरअसल वो किताब एक मुनकर ए हदीस की थी जिसका नाम परवेज़ था, और उस वक़्त मुझे इल्म भी नहीं था कि ऐसा कोई फिरका है जो हदीस का इनकार करता है क्यूंकि मेरा कभी भी उन दिनों मुनकर हदीस से बात करने का मौका मिला ही नहीं , में इस फीतने से अनजान था,

बहरहाल इस किताब ने मेरे कल्ब पर बहुत गहरा असर किया , अगर उस दौरान मुझे किसी मुनकर का साथ मिल गया होता तो मैं भी पक्का मुनकर हदीस हो चुका होता, लेकिन अल्लाह को कुछ और मंजूर था, मेरी उस वक़्त की कैफियत से अल्लाह बखूबी वाकिफ था,

उस दौरान मेरे कमरे में किसी बुजुर्ग का आना हुआ अक्सर वो किताब लेने के सिलसिले में मेरे कमरे में आ जाया करते थे उसी दौरान मेरी उनसे कुछ गुफ्तगू हो जाया करती थी, मैंने उनको यही किताब " मकाम ए हदीस " पढ़ने को दे दी,

और अगले दिन उनसे फीडबैक लेने के लिए उनके पास पहुंचा , मैंने पूछा ये किताब कैसी है??

उन्होंने तंजिया कलाम करते हुए मुझसे कहा कि :- " इसे कोई पढ़ा लिखा जाहिल पड़ेगा तो मुनकर ए हदीस हो जाएगा ??"

मुझे लगा शायद उनका ये सख्त कलाम मेरे लिए ही है,!!

फिर उन्होने मुझसे कहा :- "इस किताब का जवाब पाकिस्तान के एक आलिम ने दे दिया है"

मेरे दिल में फिर से उलझन शुरू हो गई, आलिम का नाम क्या है ?? किताब का नाम क्या है ?? कुछ नहीं जानता था,

सिर्फ इतना पता था कि मकाम ए हदीस किताब लिखने वाले का नाम परवेज़ है जो मुंकर ए हदीस है और उसका जवाब दिया जा चुका है,

फिर कानपुर के सालाना इज्तेमा का आगाज़ हुआ और में बुक स्टॉल पर नज़रे दौड़ा रहा था कि मेरी नजर एक किताब पर पड़ी " आइना ए परवेजियत ", परवेज़ का नाम देखते ही मैंने उस किताब को उठाया और उसे खरीद लिया,

ये किताब मेरे हाथ में आने के बाद मेरा इज्तेमा में मन नहीं लगा ऐसा लगा जैसे घर पहुंच कर अपने सारे शक वा शुबा दूर कर लूं और हकीकत से रूबरू हो जाऊं,

इस किताब में सबसे पहले मैंने बुखारी की काबिल ए ऐतराज़ 40 हदीस का जवाब पड़ा जो परवेज़ साहब ने किया था, यकीन मानिए इस किताब को पढ़ने के बाद मेरे सारे इश्काल दूर हो गए , और अल्लाह ने मुझे राह ए रास्त से भटकने से बचा लिया,

साभार : Umair Salafi Al Hindi
Blog: islamicleaks.com 

Saturday, August 29, 2020

AAYESHA NAHIN AAYEGI TO MAIN BHI NAHIN AUNGA




आयशा नहीं आएगी तो मैं भी नहीं आऊंगा !!

وَحَدَّثَنِي زُهَيْرُ بْنُ حَرْبٍ، حَدَّثَنَا يَزِيدُ بْنُ هَارُونَ، أَخْبَرَنَا حَمَّادُ بْنُ سَلَمَةَ، عَنْ ثَابِتٍ، عَنْ أَنَسٍ، أَنَّ جَارًا، لِرَسُولِ اللَّهِ صلى الله عليه وسلم فَارِسِيًّا كَانَ طَيِّبَ الْمَرَقِ فَصَنَعَ لِرَسُولِ اللَّهِ صلى الله عليه وسلم ثُمَّ جَاءَ يَدْعُوهُ فَقَالَ ‏"‏ وَهَذِهِ ‏"‏ ‏.‏ لِعَائِشَةَ فَقَالَ لاَ ‏.‏ فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صلى الله عليه وسلم ‏"‏ لاَ ‏"‏ فَعَادَ يَدْعُوهُ فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صلى الله عليه وسلم ‏"‏ وَهَذِهِ ‏"‏ ‏.‏ قَالَ لاَ ‏.‏ قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صلى الله عليه وسلم ‏"‏ لاَ ‏"‏ ‏.‏ ثُمَّ عَادَ يَدْعُوهُ فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صلى الله عليه وسلم ‏"‏ وَهَذِهِ ‏"‏ ‏.‏ قَالَ نَعَمْ ‏.‏ فِي الثَّالِثَةِ ‏.‏ فَقَامَا يَتَدَافَعَانِ حَتَّى أَتَيَا مَنْزِلَهُ ‏.‏

हज़रत अनस बिन मलिक बयान करते हैं के एक बार रसूल अल्लाह मुहम्मद (sws) का एक फारसी पड़ोसी बहुत अच्छा सालन बनाता था, एक दिन उनसे रसूल अल्लाह मुहम्मद (sws) के लिए सालन बनाया, आपको दावत देने के लिए हाज़िर हुआ तो आपने फरमाया :

" और ये भी ( यानी हज़रत आयशा भी मेरे साथ आयेगी या नहीं )"

तो उसने कहा :- नहीं !!

तो उसपर रसूल अल्लाह मुहम्मद (sws) ने फरमाया :- नहीं ( यानी मैं नहीं आऊंगा )

उस फारसी ने दोबारा रसूल अल्लाह मुहम्मद (sws) को दावत दी, तो आपने फरमाया :- ये भी (यानी आयशा)

तो उस फारसी ने अर्ज़ किया :- नहीं !!

तो आपने फिर इनकार फरमा दिया,

उस फारसी ने तीसरी बार रसूल अल्लाह मुहम्मद (sws) को दावत दी, आपने फरमाया :- ये भी ,

उस फारसी ने अर्ज़ किया :- हा ये भी !! फिर दोनों (यानी रसूल अल्लाह और हज़रत आयशा ) एक दूसरे को थामते हुए खड़े हुए और उस फारसी के घर तशरीफ ले गए

(सही मुस्लिम हदीस 5312 )

साभार : Umair Salafi Al Hindi 

Friday, August 28, 2020

SAARI TAAREEF SIRF ALLAH KE LIYE





तारीफ़ के लायक है अल्लाह परवरदिगार ए आलम की वह ज़ात जिसके नूर ए मुहब्बत से ईमान वाले दिल इत्मीनान हासिल करते हैं, और जिसके फैज़ान ए रहमत से मुत्मइन रूहें तस्कीन पाती हैं,

अल्लाह ताला की खास रहमतें हों उस मुकद्दस खातिम उन नाबिय्यीन मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर जिन्हे तमाम जहानो के लिए रहमत बना कर भेजा गया, सलामती हो आपकी आल पर, सहाबा किराम रिज़वान उल्लाह अलैहि अजमईन पर, आपके दीन कि पैरवी करने वालों पर

आमीन

साभार : Umair Salafi Al Hindi

Thursday, August 27, 2020

तदवीन हदीस और फितना मुंकिरीन ए हदीस- (किस्त 1)





तदवीन हदीस और फितना मुंकिरीन ए हदीस- (किस्त 1)

तदवीन हदीस का पहला दौर

इस पोस्ट में हम बताएंगे के ताबईन का दौर तो दूर की बात है, सहाबा किराम का दौर हो 110 हिजरी तक है में, बल्कि पहली सदी हिजरी के आखिर तक हदीस की क्या कुछ किताबें उम्मत के हाथों में थी,

ताकि मुनकर ए हदीस का ये झूट तारीखी हकीकत की रोशनी में पूरी तरह से सामने आ जाए

मुंकर्स फरमाते हैं

" तबाईन के दौर तक हदिसें जमा नहीं की गईं थीं और सिवाए क़ुरआन के उम्मत के हाथों में कोई दूसरी किताब ना थी "

जवाब

सहाबा किराम के तहरीरी मजमुए

1- सहीफा सादिकाह

मुरत्तब हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर वा अब्दुल्लाह बिन आस ( 93 हिजरी)

(बुखारी किताबुल इल्म बाब किनायतुल इल्म)

ये साहिफा एक हज़ार हदीस पर मुस्तामिल था,

(उसदुल गाबा पेज 233)

और ये मुसनद अहमद में ये तमाम सहिफा मिल सकता है, इस सहीफे को देख कर उनके पड़ पोते उमर बिन सुहैब हड़ीसें रिवायत किया करते थे, और अकाबिरीन मुहद्दिसीन जैसे इमाम बुखारी, मलिक, अहमद बिन हम्बल, इशाक बिन रोहियाह वगेरह हम उनकी रिवायत पर ऐतमाद करते थे,

(तारीख उल हदीस वल मुहद्दिसीन पेज 310)

2- साहीफा उमर बिन अल खत्ताब

जब हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने हदीस की जमा वा तदवीन का हुक्म दिया तो हज़रत उमर की ये किताब उनके खानदान से मिली उस किताब में सदकात वा जकात के अहकमात दर्ज थे,

इमाम मालिक फरमाते हैं

" मैंने हज़रत उमर की ये किताब पढ़ी थी"

(मोआत्ता इमाम मालिक पेज 106)

3- सहीफा उस्मान

इस सहिफा में भी जकात के बहुत से अहकाम दर्ज थे, ये वही सहिफ़ा है जिसके ताल्लुक से मुनकर ए हदीस हाफ़िज़ असलम साहब फरमाते है

" हजरत अली ने अपने बेटे मुहम्मद बिन हनफिया के हाथ एक पर्चा भेजा जिसमें जकात के अहकाम दर्ज थे तो आपने ये कह दिया के हमें इससे माफ़ रखो "

मुनकार हदीस हाफ़िज़ असलम साहब इससे हज़रत उस्मान की हदीस से बेरुखी साबित करते हैं

जबकि हकीकत ये है के इससे हज़रत उस्मान की किताबत हदीस साबित होती है,

ये वाकया बुखारी किताबुल जिहाद में मौजूद है,

4- सहीफ़ा हज़रत अली

इमाम बुखारी की तशरीह से मालूम होता है कि ये मजमुआ काफी बड़ा था,

( बुखारी किताब उल इल्म)

उसमे जकात, सदकात , दियत, किसास, हुर्मत मदीना, खुतबा जुमा तुल विदा, और इस्लामी दस्तूर के नुकात मौजूद थे, ये आपके बेटे हज़रत मुहम्मद बिन हनफिया के पास था,

( बुखारी किताब उल इल्म बाब किताबियत उल इल्म )

फिर हज़रत जाफर के पास आया, इसी की नकल आपने हारिश रह्महुलाह को लिख कर दी

( तदवीन हदीस 7/317)

5- सहीफ़ा हज़रत अनस बिन मालिक

वह सहीफ़ा जिसे आपने नबी ए रहमत मुहम्मद (sws) को सुनाकर उसकी तस्दीक भी फरमाई थी,

6- खुतबा फतह मक्का

जिसे आपने अबू शाह यमनी की दरख्वास्त पर अपना मुफस्सिल खुतबा कलमबंद करने का हुक्म दिया

( मुस्तरदर्क हाकिम जिल्द 3 पेज 574)

ये खुतबा हुकूक उल इंसानी की अहम तफ़सीलात पर मुष्तामिल है,

7- मुसनद हज़रत अबू हुरैरा

इसके नुस्खे सहाबा के दौर में ही लिखे गए थे, इसकी एक नकल हज़रत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ के वालिद अब्दुल अज़ीज़ बिन मरवान गवर्नर मिस्र (86 हिजरी) के पास भी थी,

हजरत उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ (101 हिजरी) ने कैसर बिन मुर्रह को लिखा था के सहाबा किराम की जो हदीसें तुम्हारे पास मौजूद हैं वह हमें लिख कर भेजें, मगर अबू हुरैरा की रिवायत भेजने की जरूरत नहीं क्यूंकि वह हमारे पास पहले ही लिखी हुई मौजूद हैं

(तबकात इब्न साद 7/157)

8- सहीफ़ा हम्माम बिन मुनब्बेह

हम्माम बिन मुनब्बेह हज़रत हज़रत अबू हुरैरा के शार्गिद हैं जिन्होने 138 हदीस का एक सहीफ़ा तैयार किया था, ये सहीफ़ा मुसनद अहमद बिन हम्बल में दर्ज है,

9- सहीफ़ा बशीर बिन नहक

ये भी हजरत अबू हुरैरा के शार्गिद हैं उन्होने भी एक मजमुआ हदीस मुरत्तब किया था और हज़रत अबू हुरैरा पर पेश करके उसकी तौसीब करा ली थी,

( जामे बयान उल इल्म 1/72)

10- सहीफ़ा हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह

ये मजमुआ मनासिक हज, और खुतबा हज्जतुल विदा पर मुष्तामिल था, इसको आपके शार्गिद वहाब बिन मुनब्बेह (110 हिजरी) और सुलेमान बिन कैस ने मुरत्तब किया

(तहज़ीब उल तहज़ीब 5/215, तिरमिज़ी माजा फिल अर्जुल मुश्तरक)

11- हज़रत आयशा की रिवायत

जो उनके शार्गिद उरवाह बिन ज़ुबैर ने कलमबंद किया

(तहज़ीब उल तहज़ीब 5/183)

12- हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास की रिवायत

जिसे हज़रत सईद बिन ज़ुबैर ताबई ने मुरत्तब किया,

(दारिमी पेज 68)

एक बार ताएफ के कुछ लोग हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास के पास आए तो आपने अपना जासुदान निकाला और उसके से कुछ हदीस उन्हें इमला कराई

(तिरमिज़ी किताब उल अलल)

13- सहीफ़ा उमरो बिन हज़म

जब उन्हें रसूल अल्लाह मुहम्मद (sws) ने यमन का गवर्नर बना कर भेजा तो फायाएज वा सुनन और सदाकात वा दियत पर मुष्तमिल अहकाम लिखवा कर दिए

(तारीख उल हदीस वा मुहाद्दिसीन पेज 303)

बाद में उन्होंने मजीद फरामीन नाबावी शामिल करके एक अच्छी खासी किताब मुरत्तब कर ली,

(जमिम्याह अल आलम सैलीन मन कुतुब सईद उल मुरसलीन इब्न तौलून)

14- रिसाला समुर्रा बिन जुंदुब

ये रिसाला रिवायत के एक बड़े ज़खीरे पर मुष्तामिल था

(तहज़ीब उल तहज़ीब 4/236)

जो बाद में उनके बेटे को विरासत में मिला

15- सहीफ़ा अब्दुल्लाह बिन मसूद

जिसके मुताल्लिक उनके बेटे अब्दुर्रहमान ने हल्फिया बयान दिया के वह उनके बाप ने अपने हाथ से लिखा था,

(जामे बयान उल इल्म 1/72)

16- रिसाला सईद बिन उबादा अंसारी

इनके पास भी हदीस ए नाबावि का एक रिसाला मौजूद था,

(तबकात 3/142)

ये थे वो माजमुए जो सहाबा के दौर में मुरत्तब हुए और जिनमें बेशतर सहाबा किराम ने खुद लिखे या लिखवाए

अब गौर फरमाइए के अगर मना किताबत हदीस वाली हदीस का हुकम आम था तो क्या ये सब सहाबा , रसूल अल्लाह मुहम्मद (sws) के ना फरमान हो गए थे ??

साभार: Umair Salafi Al Hindi
Blog: islamicleaks.com

Wednesday, August 26, 2020

HAGIA SOPHIA




FBP/2020-0178

हगिया सोफ़िया :-
टर्की की एक इमारत "हगिया सोफिया" को लेकर भारत के कुछ मियाँ भाई लोग बिलावजह उछल रहे हैं। उनको अपने देश में तो धर्मनिरपेक्षता चाहिए पर मुस्लिम मुल्कों में उनको शरिया चाहिए , और चाहिए वह हर कदम जो यहाँ भारत में हिन्दूवादी की सरकार करती है।
भारत में उनको "बाबरी मस्जिद" एक पीड़ित लगती है पर टर्की की "हगिया सोफिया" उनके स्वाभिमान का प्रतीक लगती है।
ओ भाई लोगों , "हगिया सोफिया" पर बाद में अपना सीना फुला लेना , पहले अपने शहर और अपने मुहल्ले की मस्जिदों को बचाओ और आबाद करो।
क्युँकि जो हालत टर्की में "हगिया सोफिया" की है वही हालत भारत की तमाम मस्जिदों की है। वहाँ भी बहुसंख्यक भावना दूसरे धर्म वालों की भावना पर हावी है तो यहाँ भी वही है।
"हगिया सोफिया" या "अया सोफ़िया" में मैं 2 बार जा चुका हूँ , 16 मार्च को तीसरी बार जाने वाला था पर कोरोना ने सब स्थगित कर दिया। वहाँ अंदर जाने का टिकट 60 लीरा का था अर्थात भारत के ₹120 के बराबर।
वहाँ जाकर जो समझा है वह आप भी समझ लीजिए
हागिया सोफ़िया का हिन्दी में अर्थ होता है 'पवित्र विवेक' या 'पवित्र ज्ञान।'
एशिया और यूरोप की सीमा तय करती टर्की की "बॉस्फ़ोरस नदी"। यह टर्की के 97% भाग को एशिया और 3% भाग को युरोप में बाँटती है। इस नदी के पूर्व की तरफ़ एशिया और पश्चिम की ओर यूरोप है।
युरोप का "गेट" कहे जाने वाले टर्की में सन 532 इस्वी में ईसाइयों का राज था , यह वह दौर था जब ना इस्लाम का यह रूप था ना सल्लल्लाहो अलैहेवसल्लम हज़रत मुहम्मद की पैदाईश हुई थी। आपका जन्म 22 अप्रेल 571इस्वी को हुआ था।
532 ईस्वी में टर्की के "रोमन सम्राट जस्टिनियन" ने एक आदेश दिया कि एक शानदार चर्च बनाया जाए। एक ऐसा चर्च जो आज तक ना बना हो और ना ही कभी दोबारा बनाया जा सके।
उन दिनों "इस्तांबुल" को कॉन्स्टेनटिनोपोल या क़ुस्तुनतुनिया के नाम से जाना जाता था। सम्राट जस्टिनियन के आदेश का पालन करने के लिए इस्तांबुल के "बॉस्फ़ोरस नदी" के पश्चिमी किनारे पर इस इमारत को बनाने का काम शुरू किया गया।
इस शानदार इमारत को बनाने के लिए दूर-दूर से निर्माण सामग्री और इंजीनियर लगाए गए और तकरीबन दस हज़ार मज़दूरों को लगा कर और करीब 150 टन सोने खर्च करके 5 साल के बाद सन् 537 में यह इमारत बनकर तैयार हो गई।
यह "हगिया सोफिया" जैसी आज दिखती है तब वैसी नहीं बनी थी , इसकी पहली तस्वीर चर्च की थी, तब यह विश्व के सबसे बड़े चर्च में से एक थी। यह इमारत क़रीब 900 साल तक ईस्टर्न ऑर्थोडॉक्स चर्च का मुख्यालय रही।
"हगिया सोफिया" जल्द ही रोमन साम्राज्य का आधिकारिक चर्च बन गया। सातवीं सदी के बाद बाइज़ेंटाइन वंश के तक़रीबन सभी सम्राटों का राज्याभिषेक यहीं हुआ।
बास्फोरस नदी किनारे मौजूद "हगिया सोफिया" कई बार ज़लज़लों का शिकार भी हुई। सन् 558 ईस्वी में इसका गुंबद गिर गया। सन् 563 में उसकी जगह फिर से बनाया गया गुंबद भी तबाह हो गया। 989 ईस्वी में आए एक भयंकर भुकंप ने भी उसे नुकसान पहुंचाया। पर वह हर भूकंप वह सहती रही, और वजूद बचाए रखा।
मगर हगिया सोफिया पर जितना मार प्राकृतिक भूकंपों ने किया उससे अधिक वार सत्ता के बदलने के साथ आए परिवर्तन ने किया।
13वीं सदी में तो इसे यूरोपीय ईसाई हमलावरों ने बुरी तरह ध्वस्त करके कुछ समय के लिए कैथलिक चर्च बना दिया था। और इसी तरह यह इमारत कई बार खत्म हुई और फिर कई बार अलग स्वरूप में बनी। कभी दंगों में गुंबद खत्म हो गया तो कभी उसकी दीवारें ढह गयीं , और हर बार नये तरीके से बनाई गयीं।
हगिया सोफिया 13 वीं शताब्दी तक इसाईयों के ही दो संप्रदायों के बीच विवाद का कारण बनी रही।
पर इसके बाद सन् 1299 में ईसाइयों के इस साम्राज्य पर उस्मानिया सल्तनत का कब्ज़ा हो गया। सुल्तान उस्मान ,छोटे से काई कबीले के खलीफा इर्तगुल और उनकी पत्नी हलीमा के बेटे थे।
तब तुर्की के करकोपरा दरवाजे के ऊपर स्थापित बाजिंटिनी झंडा उतारकर उसकी जगह उस्मानी झंडा लहरा दिया गया था। और यह टर्की में इस्लामिक हुकूमत का ऐलान था।
क़ुस्तुनतुनिया पर "सल्तनत ए उस्मानिया" ने फ़तह हासिल कर ली। रोमन साम्राज्य ख़त्म करके उस्मानिया सल्तनत के सुल्तान मेहमद द्वितीय का कब्ज़ा हो गया। और सबसे पहले क़ुस्तुनतुनिया का नाम बदलकर इस्तांबुल किया गया।
सत्ता बदलने के साथ आए वैचारिक भुकंप में हागिया सोफ़िया इमारत भी अपनी पहचान को ना बचा सकी।
साल 1453 में "बाइज़ेंटाइन एंपायर" खत्म होने के बाद सुल्तान मुहम्मद द्वितीय ने फ़रमान सुनाया कि हागिया सोफ़िया को मस्जिद बना दिया जाए।
हुक़्म की तामील हुई। इसाई धार्मिक चिन्ह क्रॉस की जगह इमारत में चांद को बनाया गया। चर्च की घंटियां खामोश कर दी गईं। संगमरमर को हगिया सोफिया की दीवारों पर इस तरह जड़ा गया कि उन पर उकेरे गए चित्रों पर चादर पड़ गई।
यह किसी दौर के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी , सत्ता के सहारे तब और आज यह सब किया ही जाता रहा है।
सल्तनत ए उस्मानिया के दौर में 665 साल तक "हागिया सोफ़िया" में गुंबद बनाए गए, इस्लामी मीनारें तैयार की गईं।
"हगिया सोफ़िया" में पहली नमाज़ जुमा की पढ़ी गई तब इस नमाज़ में ख़ुद सुल्तान और सारा शहर शामिल हुआ था।
उसी दौर में "अया सोफिया" या "हगिया सोफ़िया" को सुल्तान मोहम्मद अल फातेह ट्रस्ट की संपत्ति घोषित किया गया और सुल्तान मोहम्मद ने एक वसीयत लिखी कि इसे लोगों की सेवा के लिए मस्जिद के रूप में हमेशा पेश किया जाय।
आज दिख रही "हगिया सोफ़िया" उस्मानिया सल्तनत की बनाई हुई इमारत है।
तुर्की में फिर "मुस्तफ़ा अतातुर्क उर्फ कमाल पाशा" का उदय हुआ , जिनको विश्व में आधुनिक तुर्की का संस्थापक कहा जाता है। उन्होंने तुर्की में उस्मानिया राजशाही खत्म करके एक लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम की जो आजतक जारी है।
अतातुर्क कमाल पाशा , विश्व में अपनी स्विकर्यता और मान्यता बढ़ाने के लिए विश्व बिरादरी से समझौते करने लगे , जिसमें एक समझौता तो तुर्की की अर्थव्यवस्था के ही विरुद्ध था।
सन् 1923 में हुए इस समझौते के तहत तुर्की पर तेल के कुओं के प्रयोग और बंदरगाहों पर कर इत्यादि जैसे तमाम आर्थिक प्रतिबंधों को 100 साल के लिए स्विकार कर लिया , जिसकी अवधि 2023 में पूरी होने जा रही है।
अतातुर्क ने देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया और इस्लामिक शरिया को खत्म करके एक "यूरोपीय सिविल कोड्स" दिया। इस्लामिक व्यवस्थाओं और सिद्धांतों की जगह तुर्की में पश्चिमी सभ्यता को प्रमुखता दी जाने लगी।
इसी उद्देश्य से उन्होंने एक बार फिर "हगिया सोफ़िया" पर फ़ैसला लिया और अपने युरोपीय आकाओं को खुश करने के लिए "हगिया सोफ़िया" में नमाज़ पर प्रतिबंध लगा दिया। तब भी जबकि यह "सुल्तान मोहम्मद अल फातेह ट्रस्ट" की संपत्ति थी।
अब यह ना मस्जिद रही और ना ही चर्च, बल्कि साल 1934 में उसे एक म्यूज़ियम में तब्दील कर दिया गया और इसका नाम रखा गया "आयादफया संग्रहालय"।
दीवारों पर जो तस्वीरें उस्मानी दौर में छिपा दी गई थीं, उन्हें बहाल किया गया। मगर इस बात का ख़्याल रखा गया कि इस्लामी प्रतीकों को नुक़सान ना पहुंचे। साल 1935 में इसे सभी लोगों के लिए ख़ोल दिया गया। अब किसी पर कोई पाबंदी नहीं थी।
मैंने ऐसी ही "हगिया सोफ़िया" देखी थी , हागिया सोफ़िया में हर तरफ़ इतिहास के निशान दिखाई देते हैं। यहां एक तरफ मोहम्मद और दूसरी तरफ़ अल्लाह लिखा है तो वहीं बीच में यीशु को अपनी गोद में लिए हुए वर्जिन मेरी भी दिखाई देती हैं। हागिया सोफ़िया को 1985 से वर्ल्ड हेरिटेज घोषित कर दिया गया था। क़रीब 90 साल से ये इमारत म्यूज़ियम बनी हुई है।
अब आते हैं ताज़े घटनाक्रम पर
तुर्की में युरोपीय देशों के दबाव में कमाल पाशा द्वारा बनाए 1934 के क़ानून के ख़िलाफ़ लगातार प्रदर्शन होते रहे हैं।
जिसके तहत "हागिया सोफ़िया" में नमाज़ पढ़ने या किसी अन्य धार्मिक आयोजन पर पाबंदी थी। हालाँकि सभी ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों के मानद प्रमुख बार्थोलोमैओस काफ़ी वक़्त से मांग कर रहे हैं कि हागिया सोफ़िया में ईसाइयों को इबादत की इजाज़त दी जाए।
फिर दौर आता है "रेजेप ताय्यिप एर्दोआन" का जो मौजूदा तुर्की के बारहवें राष्ट्रपति हैं। इससे पहले वे तुर्की के 14 मार्च 2003 से 28 अगस्त 2014 तक प्रधानमंत्री थे और सन् 1994 से 1997 तक इस्तांबुल के मेयर रहे।
तुर्की के बेहद लोकप्रीय राष्ट्रपति "रेजेप ताय्यिप एर्दोआन" ने अपने राष्ट्रपति के चुनाव में घोषणा की थी कि उनके जीतने पर "हगिया सोफ़िया" में नमाज़ फिर से शुरु कराई जाएगी।
तुर्की में युरोपीय सभ्यता को खत्म करने के लिए "रेजेप ताय्यिप एर्दोआन" ने उस्मानिया सल्तनत पर एक टीवी सीरियल बनवाया "ड्रीलिस उर्तगल" और कई वर्ष तक इसे टीवी पर प्रसारित करवाया , जिससे तुर्की की जनता "उस्मानिया सल्तनत" को याद करके उससे प्रभावित हो सके।
जब मैं टर्की अंतिम बार गया था तब वहाँ के लोग "ड्रीलिस उर्तगुल" के दिवाने थे।
तुर्की के सुप्रीम अदालत में वहाँ के मुसलमानों ने "हगिया सोफिया" को लेकर मुकदमा दर्ज करा दिया और दलील पेश की थी कि छठी शताब्दी में बाइज़ेंटाइन काल में बना चर्च, सुल्तान मुहम्मद अल फतेह ने खरीद लिया था। इसलिए यह तुर्की सरकार की प्रॉपर्टी है। दूसरे देश या धर्म के लोगों को दावा करने का कोई अधिकार नहीं है। वकीलों ने उस फ़ैसले को रद्द करने की अपील की, जो अतातुर्क कमाल पाशा ने सुनाया था।
वहाँ की उच्चतम अदालत ने "हगिया सोफ़िया" को सुल्तान मोहम्मद अल फातेह ट्रस्ट" की संपत्ति माना और सुल्तान की वसीयत के अनुसार मस्जिद बहाल करने का फ़ैसला सुना दिया।
निर्णय में कहा गया है कि "अया सोफिया ट्रस्ट दस्तावेज़" में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "हगिया सोफिया" का इस्तेमाल किसी मस्जिद के अलावा किसी भी उद्देश्य के लिए नहीं किया जा सकता है।
इस फैसले से युरोप के ईसाई राष्ट्रों और तुर्की के बीच टकराव और कड़वाहट अवश्य बढ़ेगी। यद्दपि तैय्तब अर्दगान ने "हगिया सोफिया" के संग्रहालय या यूनेस्को द्वारा वर्ड हेरिटेज के स्वरूप में कोई परिवर्तन ना करते हुए केवल उसमें नमाज़ की अनुमति अदालत के आदेश पर की है।
"हगिया सोफिया" विश्व धरोहर आज भी है और आगे भी रहेगी , वह आज भी "आयादफया संग्रहालय" है और आगे भी रहेगी। पर मेरा मानना है कि उसको वैसे ही रहने देते और उससे शानदार मस्जिद एर्दगान कहीं और बनाते तो उचित होता।
100 साल का तुर्की की सफलता को रोकने वाला एग्रीमेन्ट भी तो खत्म होने को है , फालतू का विवाद उनको 2023 के बाद लिए निर्णयों पर नुकसान ही पहुचाएगा।
पर किसी अन्य देश के मुद्दे पर अपने देश के मुसलमानों को लोहालोट होने से पहले अपने आस पास देखना चाहिए कि "बाबरी मस्जिद" के बाद उनकी कोई और मस्जिद "हगिया सोफ़िया" होने तो नहीं जा रही है।
बहुसंख्यक का ज़ोर जैसे तुर्की में है वैसे ही भारत में भी है।
एक दूसरी बात भी है , बाबरी मस्जिद के साथ हुई बर्बरता पर जश्न मनाने वाले , हगिया सोफिया पर आँसू ना बहाएँ तो बेहतर ही है।
शास्त्रों में इसे ही दोगलापन कहा जाता है।
नोट:
नीचे पिक्चर में तुर्की मीडिया कह रहा को जो काम हज़रत उमर ना कर पाए वो उर्दू गान ने कर दिया,
तो दूसरा कह रहा है कि हेजिया सोफिया की जियारत आधा हज वा उमरा है,

MOHD ZAHID BHAI