मुगल हुक्मरान और मीडिया का प्रोपगंडा
जब अंग्रेज ऑक्सफोर्ड (Oxford) और कैम्ब्रिज (Cambridge) बना रहे थे उस वक़्त हमारे हुक्मरान ताज महल बना रहे थे!!!
मुस्लिम हुक्मरान और प्रोपगंडा
कुछ सालों से टेलीविजन और सोशल मीडिया में तालीम के नाम पर सफेद झूट पर मबनी प्रोग्राम चलाए जा रहें हैं और ये साबित किया जा रहा है कि जब यूरोप में यूनिवर्सिटी खुल रही थी तो मुस्लिम बादशाह ताज महल और शालीमार बाग़ बना रहे थे,
मेरी ये तहरीर मुख्तलिफ रिसर्चर और लेखकों के कालम और प्रोफेसर्स, इतिहासकार की तहकीक के उस हिस्सा पर मबनी है जो मैंने जाती तहकीक के बाद दुरुस्त पाए,
इस तहरीर में मेरे अपने अल्फ़ाज़ कम और उन लोगों के अल्फ़ाज़ ज़्यादा है,
तारीख की गवाही मैं बाद में पेश करूंगा पहले बुनियादी अक्ल का एक दर्स पेश करूं,
उन चैनल या प्रोग्राम में अगर कोई समझ बूझ वाला आदमी बैठा होता तो उसकी समझने में ये मुश्किल नहीं आती के मुस्लिम दौर के शानदार इमारात जिस अज़ीम तख्लीकी सलाहियत से तामीर को गईं, वो दो चीज़ों के बेगैर मुमकिन नहीं थी,
पहली फन ए तामीर (Art Of Architecture) की तफसीली महारत जिसमें जियोमेट्री, फिजिक्स, केमिस्ट्री और आर्किटेक्चर करने तक के उलूम शामिल होते हैं,
दूसरी किसी मुल्क के मजबूत मुआशी (Economy) और इक्तिसादी हालात (GDP) उस कद्र मजबूत हो के वहां के हुक्मरान शानदार इमारत तामीर करने का खर्च बर्दाश्त कर सकें,
मूआशी (Economic) हवाले से हिन्दुस्तान खासकर मुस्लिम दौर में और खासकर मुगलिया दौर ( अकबर - आलमगीर) में दुनिया के कुल जीडीपी (GDP) में 25 फीसद हिस्सा रखता था,
इंपोर्ट इंतेहाई कम और एक्सपोर्ट इंतेहाई ज़्यादा थी और आज माहिर मुआशियात (Economic Expert) जानते हैं के कामयाब मुल्क वह है जिसकी एक्सपोर्ट ज़्यादा और इंपोर्ट कम हो,
17वी सदी में फ़्रांसिसी Francois Bernier हिन्दुस्तान आया और कहता है के
" हिन्दुस्तान के हर कोने में सोने और चांदी के ढेर हैं, इसलिए सल्तनत ए मुगलिया हिन्द को सोने की चिड़िया कहते थे "
अब तमीरात ( Building Construction) वाले ऐतराज़ की तरफ आते हैं
फन ए तामीर ( Art Of Architecture) की जो तफ़सीलात , ताज महल, शीशमहल , शालीमार बाग, मकबरा हुमायूं, दीवान ए ख़ास वगेरह वगेरह में नजर आती है, इससे लगता है के उनके जियोमेट्री के इल्म की इंतेहा को पहुंचे हुए थे,
ताज महल की चार मीनार, सिर्फ आधा इंच बाहर की तरफ झुकाए गए ताकि भूकंप की सूरत में गिरे तो गुंबद तबाह ना हो,
मिस्री के ईंट लगाने से ये सब मुमकिन नहीं, इसमें हिसाब (Measurement) की बारीकियां शामिल हैं, पूरा ताजमहल 90 फीट गहरी बुनियादों पर खड़ा है, उसके नीचे 30 फीट रेत डाली गई के अगर भूकंप आए तो पूरी इमारत रेत में घूम सी जाए और महफूज़ रहे लेकिन इससे भी हैरान की बात ये है के इतना बड़ा शाहकार दरिया के किनारे तामीर किया गया है और दरिया किनारे इतनी बड़ी तामीर अपने आप में एक चैलेंज थी, जिस के लिए पहली बार वेल फाउंडेशन (Well Foundation) मुतारिफ कराई गई यानी दरिया से भी नीचे बुनियादें खोद कर उनको पत्थरों और मसालों से भर दिया गया,
और ये बुनियादें सैकड़ों की तादात में बनाई गई गोया ताजमहल के नीचे पत्थरों का पहाड़ और गहरी बुनीयादों का बड़ा जाल है, इसी तरह ताजमहल दरिया के नुकसान से हमेशा के लिए महफूज़ कर दिया गया
इमारत के अंदर दाखिल होते हुए इसका नजारा फरेब यानी ( Optical Illusion) से भरपूर है,
ये इमारत एक वक़्त इस्लामी , फारसी, उस्मानी ,तुर्की और हिंदी फने तामीर का नमूना है,
ये हिसाब करने के लिए, मेज़रमेंट और जियोमेट्री की बारीक तफसील मालूम होना चाहिए
प्रोफेसर इबा कोच (University Of Vienna) ने हाल ही में ताजमहल के इस्लामी ऐतबार से रूहानी पहलू वाजह (Decode) किए हैं
और भी कई राज भविष्य में सामने आ सकते हैं,
अंग्रेज़ ने तामिरात में (Well Foundation) का आग़ाज़ 19वी सदी और (Optical Illusion) का आगाज़ 20वी सदी में किया,
जबकि ताजमहल इन तरीका ए तामीर को इस्तेमाल करके 17वी में मुकम्मल हो गया था,
आज ताजमहल को मॉडर्न मशीनरी और मॉडर्न साइंस को इस्तेमाल करते हुए बनाया जाए तो 1000 मिलियन डॉलर लगने के बावजूद वैसा बन्ना लगभग नामुमकिन है,
" टाइल मोसैक " (Tile Mosaic) कला के है, जिसमें छोटी छोटी रंगीन टाइलों से दीवार पर तस्वीर बनाई जाती और दीवार को सजाया गया है,
ये कला लाहौर के शाही किले के एक किलोमीटर लंबी दीवार और मस्जिद वाजीरखान में नजर आता है, उनमें जो रंग इस्तेमाल हुए उनको बनाने के लिए आपको मौजूदा दौर में पढ़ाई जाने वाली केमिस्ट्री का गहन इल्म होना चाहिए,
यही हाल फ्रेशको पेंटिंग का है, जिनके रंग 400 साल गुजरने के बावजूद आजतक नहीं हल्के हुए,
तमाम मुगल दौर में तामीर शुदा इमारतों में टेरा कोटा ( मिट्टी को पकाने की कला ) से बने ज़ेर ए ज़मीन पाइप मिलते हैं , उनसे सीवरेज और पानी की तरसील का काम लिया जाता था, कई सदियां गुजरने के बावजूद ये अपने असल हालात में मौजूद हैं,
मुस्लिम कला तामीर का पूरा इल्म हासिल करने की कोशिश की जाए और मौजूदा दौर के विज्ञानी पैमानों पर एक निसाब (Syllabus) की सूरत तश्कील दिया जाए तो सिर्फ एक कला तामीर को मुकम्मल तौर पर सीखने के लिए पी एच डी (PHD) की कई डिग्रियां दरकार होंगी,
क्या ये सब कुछ उस हिन्दुस्तान में हो सकता था, जिसमें जिहालात का दौर ए दौरा हो और जिसके हुक्मरानों को इल्म से नफरत हो ??
ये मुस्लिम निज़ाम ए तालीम (Education System) ही था जो सबके लिए बराबर था, जहां से बैक वक़्त आलिम, अर्थशास्त्री , डॉक्टर, फिलोस्फर, हुक्मरान और इंजीनियर निकलते थे,
शेख अहमद सिरहिंदी हों या जहांगीर हो या उस्ताद अहमद लाहौरी हो, ये सब मुख्तलिफ घारानो से ताल्लुक रखने के बावजूद एक ही निज़ाम ए तालीम में परवान चढ़े, इसी लिए इन सब की सोच इंसानी फायदे के लिए थी,
आगे भी मैं मगरिबी मुसन्निफीन (Western Scholer & Researchers) की गवाही पेश करूंगा इसलिए के मेरे उन " अज़ीम" साहबान ए इल्म को किसी मुसलमान या लोकल स्कॉलर की गवाही से भी बू आती है,
Will Durand मगरिबी दुनिया के मशहूर तरीन स्कॉलर और फिलोस्फर हैं , वह अपनी किताब Story Of Civilization में मुगल हिन्दुस्तान के बारे में लिखते हैं
" हर गांव में एक स्कूल मास्टर होता था जिसे हुकूमत तनख्वाह देती थी, अग्रेजों के आने से पहले सिर्फ बंगाल में 80 हज़ार स्कूल थे , हर 400 बच्चों पर एक स्कूल होता था , उन स्कूल में 6 विषय (Subject) पढ़ाएं जाते थे , ग्रामर (Grammer) , अर्ट एंड क्राफ्ट (Art & Craft), तिब (Medical Science) ,फलसफा (Philosophy) , मंतक (Logic), और मजहबी तालीम ( Religious Education) "
उसने अपनी एक और किताब (A Case for India) में लिखा है
" मुगलों के ज़माने में सिर्फ मद्रास के इलाके में एक लाख 25 हज़ार ऐसे स्कूल थे जहां तिब्ब इल्म (Medical Science) पढ़ाया जाता और टिब्बी सहूलियत मयस्सर थी "
Major M.D Basu ने ब्रिटिश राज और उससे पहले के हिन्दुस्तान पर बहुत सी किताबें लिखी और Max Mueller के हवाले से लिखता है
" बंगाल में अंग्रेजो के आने से पहले वहां 80 हज़ार स्कूल थे "
औरगज़ेब आलमगीर के ज़माने में एक गोरा हिन्दुस्तान आया जिसका नाम Alexander Hamilton था , उसने लिखा के सिर्फ थट्टा शाहर में उलूम वा फन्न ( Art & Culture) सिखाने के 400 कॉलेज थे,
Major M.D Basu ने तो यहां तक लिखा है के
" हिन्दुस्तान के आम आदमी की तालीम यानी फलसफा, मंतक, और साइंस का इल्म एंगलिस्तान के रईसों हत्ता के बादशाह और मलिका से भी ज़्यादा होता था "
James Grant की रिपोर्ट याद रखे जाने के काबिल है, इसने लिखा
" तालीमी इदारो के नाम जायदादें वकफ़ करने का रिवाज दुनिया भर में सबसे पहले मुसलमानों ने शुरू किया "
1857 में जब अंग्रेज हिन्दुस्तान पर मुकम्मल काबिज हुए तो उस वक़्त सिर्फ रूहेलखंड के छोटे से ज़िले में 5000 उस्ताद सरकारी खज़ाने से तनख्वाह लेते थे , ये तमाम इलाके दिल्ली या आगरा जैसे बड़े शहरों से दूर इलाकों में थे,
अंग्रेज़ और हिन्दू स्कॉलर इस बात पर राज़ी है के तालीम का उरूज़ आलमगीर के ज़माने में अपनी इंतेहा को पहुंचा,
आलमगीर ने ही पहली बार तमाम धर्म के मुकद्दस मजहबी जगहों के साथ जाएदादें वकफ़ की, सरकार की तरफ से वहां काम करने वालों के लिए वजीफे (Scholership) मुकर्रर किए,
उस दौर के तीन हिन्दू स्कॉलर Sajjan Rai Khetri, Bheem Sen , Ishwar Das बहुत मशहूर हैं
सज्जन राय खेत्री ने ' खुलासा अल तवारीख" , भीम सेन ने "नुस्खा दिल्कुशा " और ईश्वर दास ने "फुतुहात आलमगीर" लिखी है,
ये तीनों हिन्दू स्कॉलर मानते हैं के आलमगीर ने पहली बार हिन्दुस्तान में तिब्ब की तालीम (Knowledge Of Medical Science) पर एक मुकम्मल निसाब (Syllabus) बनवाया और तिब्ब अकबर, मफरह उल कुलूब, तारीफ उल अमराज , मुजरबात अकबर, और तिब्ब ए नबावी जैसी किताबें तरतीब दे कर कॉलेजों में लगवाई ताकि हाई लेवल पर मेडिकल की तालीम दी जाए
ये तमाम किताबें आज के दौर में निसाब के बराबर है,
औरंगज़ेब के कई सौ साल पहले फिरोज शाह ने दिल्ली में अस्पताल कायम किए जिसे दारुल शिफा कहा जाता था,
आलमगीर ने है कॉलेज में पढ़ाने के लिए निसाबी क़ुतुब तिब्ब ए फिरोज शाही मुरत्तब करवाई, उसके दौर में सिर्फ दिल्ली में सौ से ज़्यादा अस्पताल थे,
तारिख से ऐसे हजारों गवाहियां पेश की जा सकती हैं, हो सके तो लाहौर के अनारकली मकबरा में मौजूद जिला की मर्दम शुमारी (Human Population Index) रिपोर्ट का मुलाहिजा फरमाएं, आपको हर जिला में शारह खानदानी (Literacy Rate) 80% ज़्यादा मिलेगी जो अपने वक़्त में ग्लोबल (Global) सतह पर सबसे ज़्यादा थी,
लेकिन जब अंग्रेज़ ये मुल्क छोड़ कर गया तो सिर्फ 10% थी
बंगाल 1757 में 7 या और अगले 34 बरसों में सभी स्कूल वा कॉलेज खंडर बना दिए गए,
Edmond Brook ये बात साफ तौर कर कहीं थी के
" ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगातार दौलत लूटी जिस वजह से हिन्दुस्तान बदकिस्मती की गहराई में जा गिरा "
फिर इस मुल्क को तबाह करने के लिए Lord Carnivals ने 1781 में पहला दीनी मदरसा खोला,
उससे पहले दीनी और दुनियावी तालीम की कोई तकसीम नहीं थी, एक ही मदरसे में क़ुरआन भी पढ़ाया जाता था, फलसफा भी और साइंस भी, ये तारीख की गवाहियां हैं,
लेकिन प्रोपगंडा और प्रोग्राम बनाने वाले झूट का कारोबार करना चाहे तो उन्हें ये बातिल और मरऊब निज़ाम नहीं रोकता,
मुझे दिल्ली जाने का मौका मिला है और तामीरात का मुशाहिदा किया है, आप यकीन कीजिए के उन ईमारात के शहर से निकलना एक मुश्किल काम होता है और फख्र और हैरानी होती है के उस दौर में मशीन का वजूद ना होने के बावजूद ऐसे शाहकार तामीर करना नामुमकिन लगता है,
लाहौर में मुगलिया तामीर कला पर कभी नजर डालिए, आपको इंजीनियरिंग के कारनामों पर हैरत रह जाएगी क्यूंकि जब यूरोप जब यूनिवर्सिटी बना रहा था तो यहां तामीरात आम हो चुकी थी,
लेकिन ये मौजूदा ज़ालिम निज़ाम जहां हमें अपने इआनत के लिए अपना क्लर्क बनाता है वहां हमारी अज़ीम तारीख को भी फरामोश करता है,
तहरीर का खात्मा करने के लिए बहुत कुछ है लेकिन एक सुनहरी कौल से खात्मा करूंगा,
" आज मुसलमानों कि सबसे बड़ी कमजोरी ये है के उन्हें मीडिया का प्रोपगंडा बहा के ले गया "