मैं कम्युनिज़्म से बहुत मुतास्सिर (प्रभावित)था, क्योंकि वह इंसानों में यक्सानियत की आवाज उठाता है, अमीरी गरीबी के फ़र्क को मिटाता है, बड़ी जात छोटी जात के फ़र्क को मिटाता है, और उन तमाम मानताओं का विरोध करता है जो यह फ़र्क पैदा करती हैं चाहे वह धर्म के नाम से आई हें या कुरीतियों के, या सामाजिक मान्यताओं के,
मगर जब हमने इस्लाम को पढ़ा तो पता चला कि इस्लाम ना सिर्फ इस यक्सानियत की आवाज उठाता है बल्कि ऐसा करके भी दिखाता है, इस्लाम आक़ा और गुलाम को लड़वाए बिना, मज़दूरों और मिल मालिकों में ख़ूरेज़ी करवाए बिना,अमीरों ग़रीबों को एक दूसरे का दुश्मन बनाए बिना ही यक्सानियत काइम कर देता है,
नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कहा,
"जो खुद खाते हो वही अपने गुलाम को खिलाओ जो खुद पहनते हो वही अपने गुलाम को पहनाओ, उनपर ज़रूरत से ज्यादा बोझ ना डालो, और उनके काम में हाथ बटा लिया करो,"
तारीख़ नवेश लिखते हैं,
"जब कोई सफीर हज़रत उमर से मिलने के लिए आता तो उसे यह पूछना पड़ता के उमर कौन हैं, क्योंकि उमर और उनका गुलाम एक जैसे कपड़े पहने एक साथ बैठे होते,"
अल्लाह का शुक्र है कि उसने मुझे इस्लामी तारीख पढ़ने का शर्फ़ बख़्शा और मुझे नास्तिक होने से बचा लिया,
अगर आज इस्लाम अपनी अस्ल शक्ल में हम मुसलमानों की जिंदगी में मौजूद होता तो दुनिया में कोई भी ना लेनिन से मुतास्सिर होता ना ही मारक्स से, और सारे बुद्धिजीवी और न्याय प्रिय लोग मुसलमान होते, और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम को अपना हीरो मान रहे होते,
✍️मौलाना हारुन छतरपुर