Friday, June 18, 2021

ईद उल फित्र :-




 ईद उल फित्र :-


ईद आने वाली है , "ईद उल फित्र"

यह क्या है ? क्युँ है ? कब से ईद मानाने की शुरुआत हुई ? आईए समझते हैं।

दरअसल , मुसलमानों की अब तक की सबसे अधिक कमी यह रही कि उन्होंने अपने धर्म की छोटी छोटी बारीक बातों को अपने तक ही सीमित रख दिया।

कल एक हिन्दू दोस्त से बात हो रही थी , बोला ज़ाहिद भाई , "ईद इस बार भी गयी" , यह "दो मई दीदी गयी" की तर्ज़ पर किया गया तंज़ था।

मुझे एहसास हुआ कि वह "ईद उल फित्र" का फिर अर्थ ही नहीं जानता।

मैंने उससे पूछा "ईद उल फित्र" का अर्थ और भाव पता है ? बोला हाँ , वही "मीठी ईद" , और दूसरा "बकरा ईद" मतलब "नमकीन ईद"।

मैंने दिल में सोचा , यह जागरुकता फैलाई है कौम ने ?

तो आईए समझते हैं कि "ईद उल फित्र" है क्या ? उसका मूल उद्देश्य क्या है ?

दरअसल , वैसे तो सभी धर्म के ही धार्मिक त्योहारों का मूल भाव "सामाजिक समानता और समरसता" है। पर ईद का मूल उद्देश्य ही उत्सव से अधिक "सामाजिक , समानता और समरसता" है।

"ईद उल फित्र" का अर्थ हुआ , ईद अर्थात "बार-बार लौटकर आना" और फित्र का अर्थ हुआ "नाश्ता"। तो इस तरह "ईद उल फित्र" का अर्थ हुआ "दावत का बार बार लौट कर आना" , और चुंकि रमज़ान के 30 रोज़े के मुकम्मल होने की खुशी में "ईद" होती है इसलिए इसका भाव हुआ "खुशियों की दावत का लौट कर आना"।

मगर ठहरिए , यह तो अरबिक शब्द का हिन्दी में अनुवाद हुआ , "ईद उल फित्र" का पूरा भाव क्या है ? इसमें सिर्फ अपने लिए "खुशियों की दावत का लौट कर आना" नहीं है बल्कि गरीब , मिस्कीन , फकीर से लेकर अपने गरीब और मजबूर नाते रिश्तेदार तक की "खुशियों की दावत का लौट कर आना" यदि आप हैसियत वाले हैं तो आपकी ज़िम्मेदारी है।

इसको किए बिना आप ""ईद उल फित्र" मनाने का हक नहीं रखते।

आप पूरे रमज़ान भूखे प्यासे इसलिए रहे क्युँकि आप गरीब मजबूरों और लाचारों की भूख प्यास महसूस कर सकें। जब उनकी भूख प्यास महसूस होगी तब आपके अंदर उनकी मदद करने का जज़्बा पैदा होगा।

इसी जज़्बे को और मज़बूत करके आपको और हमको "ज़कात और फितरा" का हुक्म दिया गया है। जो आपको "ईद उल फित्र" की नमाज़ और "खुशियों की दावत का लौट कर आने" के पहले चुकाना है। जिससे वह गरीब , मिस्कीन , फकीर से लेकर गरीब और मजबूर दोस्त और नाते रिश्तेदार तक भी "खुशियों की दावत को लौट सकें"।

यह आपकी ज़िम्मेदारी है , इसीलिए "ज़कात" को इस्लाम के 5 फर्ज़ में से एक बनाया गया है और इसका ज़िक्र नमाज़ के साथ 17 बार कुरान में आया है , बल्कि जब जब नमाज़ का हुक्म हुआ तब तब "ज़कात" का भी हुक्म हुआ है।

ज़कात , अपनी कमाई और ज्वेलरी के मुल्य का 2•5% या चालीसवाँ हिस्सा होता है , ज्वेलरी का स्टैन्डर्ड डिडक्शन अर्थात न्युनतम सीमा 52 तोला चांदी या इसके मुल्य का सोना होता है जिसकी डीटेल वाल पर है। हालाकि ज़कात आप पूरे साल भी अदा कर सकते हैं पर रमज़ान में इसके निकालने पर 70 गुना पुण्य है।

अब आप जो "खुशियों की दावत को लौट रहे हैं" तो इसकी गारंटी भी आपको लेनी है कि उस दिन गरीब , मिस्कीन , फकीर भी आपकी तरह अच्छी दावत कर सकें , इसके लिए "फितरे" की व्यवस्था है "फितरा" मतलब "नाश्ता"। अर्थात आपको गरीब , फकीर और मिस्कीन के उस दिन के नाश्ते का इंतज़ाम ईद की नमाज़ के पहले करना होता है।

स्पष्ट है कि सेवईं या नाश्ता वगैरह ईद की नमाज़ के बाद ही होता है , इसलिए इस्लाम ने यह व्यवस्था बनाई कि खुद नाश्ता करने के पहले गरीब , फकीर और मिस्कीन के नाश्ते का इंतज़ाम करो।

फितरा होता कितना है ? इसका भी ज़कात की तरह एक गणितीय आधार है। हुज़ुर सल्ल्लाहो अलैहेवसल्लम के वक्त में तौल की एक इकाई "सआ" थी जो आज की तौल इकाई का 2 किलो 600 ग्राम होती है। यद्धपि कुछ लोग इसे 1 किलो 650 ग्राम मानते हैं , पर अधिक हो तो बेहतर है।

तो ईद की नमाज़ के पहले मुसलमान को 2 किलो 600 ग्राम अनाज की कीमत के बराबर पैसा गरीब , फकीर , बेवा और मिस्कीन को बाँटना होता है।

इसमें भी एक कंडीशन उभरती है , अनाज आप अपनी हैसियत के मुताबिक चुनें , जिनके पास माल कम हो वह गेहूँ के 2•6 किलो का मुल्य के बराबर , और अधिक हो तो चावल , चना , और अधिक धनवान हैं तो खजूर , और अधिक धनवान हैं तो काजू , किशमिश।

इसमें भी एक कंडीशन उभरती है , आप इन सबकी उसी गुणवत्ता के आधार पर दाम तय करें जो इनकी गुणवत्ता आप स्वयं खाते हैं।

अर्थात आपके घर में गेहूँ ₹30 प्रति किलो वाला खाया जाता है तो आप 2•600 ग्राम ×30 अर्थात ₹78/= प्रति व्यक्ति , चावल ₹100 वाला खाया जाता है तो 2•600×100= ₹260 प्रति व्यक्ति , काजू ₹1000 वाला खाया जाता है तो 2•600×1000= ₹2600 प्रति व्यक्ति।

यद्धपि फितरा 5 फर्ज़ में शामिल नहीं पर वाजिब ज़रूर है। यदि आप अपनी "खुशियों की दावत को लौट रहे हैं" तो इसकी नमाज़ के पहले फितरा अदा करते हैं तो आपकी "ईद उल फित्र" का असल मकसद पूरा हो जाता है।

यही आपकी असल "ईद उल फित्र" होती है।

रमजान इस्लामिक कैलेंडर का नौवां महीना होता है। रमजान को 'कुरआन का महीना' भी कहा जाता है, रमज़ान के इसी महीने में भूखे प्यासे हुज़ूर सल्ल्लाहो अलैहेवसल्लम पर कुरान उतारी गयी।

पहली "ईद उल-फ़ित्र" सल्लल्लाहो अलैसेवसल्लम हज़रत मुहम्मद ने सन 624 ईसवी में जंग-ए-बदर के बाद मनाया।

तो ज़कात और फितरा , ईद की नमाज़ के पहले , गरीब और ज़रूरतमंद में बाँट दीजिए , तभी आपकी "ईद उल फित्र" मुकम्मल होगी।

ईद चौराहे पर डीजे बजा कर "तम्मा तम्मा लोगे" पर नाचने और झूमने से मुकम्मल नहीं होगी। जकात और फितरा बाटने से मुकम्मल होती है, और इसको मुकम्मल करने लिए लाॅकडाऊन हो या ना हो फर्क नहीं पड़ता।