Wednesday, June 2, 2021

बाप : औलाद की कश्मकश में




 बाप : औलाद की कश्मकश में


जवानी में इन्सान बाप को शक की निगाह से देखता रहता है जैसे बाप को हमारे मसाइल, तकलीफों या ज़रूरतों का एहसास ही नहीं, ये नए दौर के तक़ाज़ों को नहीं समझता !!

कभी कभी हम अपने बाप का मावज़ाना भी करना शुरू कर देते हैं जैसे के

" इतनी मेहनत हमारे बाप ने कि होती, कुछ बचत की होती या कुछ बनाया होता तो आज हम भी !!! फलां की तरह आलीशान घर में रह रहे होते और बड़ी गाड़ी में घूम रहे होते"

कहां हो ??
कब आओगे ??
ज़्यादा देर ना करना !!!

इस जैसे सवाल इंतेहाई फ़िज़ूल और फालतू लगते हैं ,

बाप का ये कहना के स्वेटर तो पहना है कुछ और भी पहन लो सर्दी बहुत है, इन्सान सोचता है कि ओल्ड फ़ैशन की वजह से वालिद को बाहर की दुनिया का अंदाज़ा नहीं,

अक्सर औलादें अपने बाप को एक ही मेयार पर रखती हैं, घर, गाड़ी, प्लॉट, बैंक बैलेंस, कामयाबी और फिर अपनी नाकामियो को बाप के खाते में डाल कर खुद सुरखरू हो जाते हैं, और कहते हैं के हमारे पास भी कुछ होता तो अच्छे स्कूल में पढ़ते या कारोबार करते,

इसमें शक नहीं औलाद के लिए आइडियल भी उनका बाप ही होता है लेकिन कुछ बातें जवानी में समझ नहीं आती या हम समझने की कोशिश नहीं करते , इसलिए के तब हमारे सामने दुनिया ही सब कुछ होती है और इस दुनिया से मुकाबले का भूत सवार होता है,

जल्द से जल्द सब कुछ पाने कि जुस्तुजू में हम कुछ खो भी रहें होते हैं जिसका एहसास हमें बहुत देर से होता है,

बहुत सी औलादें वक्ति महरूमियों का पहला ज़िम्मेदार अपने बाप को क़रार देकर हर चीज़ से बरी हो जाती है,

साहब !! वक्त तो गुज़र ही जाता है, अच्छा भी और बुरा भी और इतनी तेज़ी से गुजरता है के इन्सान पलक झपकते माजी की कहानियों को अपने इर्द गिर्द मंडराते देखना शुरू कर देता है,

जवानी, पढ़ाई, नौकरी, शादी, औलाद और फिर वही स्टेज वहीं किरदार जो निभाते हुए हर लम्हा अपने बाप का चेहरा आंखों के सामने आकर,

बाप की हर सोच,एहसास, फिक्र , परेशानी, शर्मिंदगी और अजियत को हम पर खोल कर रख देता है!!

बाप की कभी कभी बिला वजह खामोशी, कभी पुराने दोस्तों में बैठकर बेवजह कहकहे लगाना, कभी अच्छे कपड़ों को नापसन्द करके पुराने कपड़ों को फख्र से पहनना, खानों में अपनी सादगी पर फख्र करना या कभी कभी सर झुकाए अपने छोटे छोटे कामों में मगन होने की वजह , कभी बिगैर वजह थकावट के बहाने सर ए शाम बत्ती बुझा कर लेट जाना या फिर नज़रें झुकाए इंतेहाई महवियत से डूबकर क़ुरआन की आयतों को विर्द करना,

ये सब हमें समझ तो आना शुरू हो जाता है लेकिन बहुत देर हो चुकी होती है,

जब हम खुद रातों को जाग जाग कर दूसरे शहरों में गए बच्चों पर आयत उल कुर्सी के दायरे फूंकते है, जब हम सर्दी में वजू करते हुए अचानक सोचते हैं के बेटे से पूछ ही लें के बेटा आप के यहां गरम पानी आता है ??

जब कहर की गर्मी में रूम कूलर की ठंडक बदन को छूती है तो पहला एहसास दिल वा दिमाग़ मे हलचल से मचाता है वह ये के

"कहीं औलाद गर्मी में तो नहीं बैठी "

जवान औलाद के मुस्तकबिल , शादियों की फिक्र , हज़ार ताने बाने जोड़ता बाप थक हार कर अल्लाह और उसके पाक कलाम में पनाह ढूंढ ता है तब याद आता है के हमारा बाप भी एक एक हर्फ , एक एक आयत पर रुक रुक कर बच्चों की सलामती , खुशी, बेहतर मुस्तकबिल की दुआएं ही करता होगा ,

हर नमाज़ के बाद उठे कपकपाते हाथ अपनी दुआओं को भूल जाते होंगे हमारी तरफ हमारे बाप भी एक एक बच्चे को नम आंखों से अल्लाह की पनाह में देता होगा ,

सर ए शाम कभी कभी कमरे की बत्ती बुझा कर इस फिक्र की आग में जलता होगा के मैंने अपनी औलाद के लिए बहुत कम किया ,

औलाद को बाप बहुत देर से याद आता है, इतनी देर से के हम उसे छूने ,महसूस करने , उसकी हर तल्खी, अज़ियत और फिक्र का इज़ाला करने से महरूम हो जाते हैं,

ये एक अजीब एहसास है जो कुछ वक्त के बाद अपनी असल शक्ल में हमें बेचैन ज़रूर करता है, लेकिन ये हकीकत जिन पर बर वक्त अया हो जाएं वहीं खुशकिस्मत औलादें होती है,

औलाद होते हुए हम समझते हैं के बाप का छूना, प्यार करना , दिल से लगाना, ये तो बचपन की बातें हैं मगर जब खुद बाप बनते हैं तो यकीन करें आंखें भीग जाती हैं के पता नहीं के बाप ने कितनी दफा दिल ही दिल में हमें छाती से लगाने को बाज़ू खोले होंगे ??
प्यार के लिए उसके होंठ तड़पे होंगे??

और हमारी बेबाक जवानियों ने उसे ये मौका नहीं दिया होगा !!!

हम जैसे दरमियाने तबके के सफेद पोश लोगों की हर ख्वाहिश, हर दुआ , हर तमन्ना, औलाद से शुरू होकर औलाद पर ही खतम हो जाती है,

लेकिन कम ही बाप होंगे जो ये एहसास अपनी औलाद को अपनी ज़िन्दगी में दिला सके हों,

ये एक छुपा हुआ मीठा सा दर्द है जो बाप अपने साथ ही ले जाता है,

औलाद के लिए बहुत कुछ करके भी कुछ ना कर सकने की एक खालिश आखिरी वक्त तक एक बाप को बेचैन रखती है,

और ये सब बहुत शिद्दत से महसूस होता है जब हम बाप बनते हैं, बुढापे की दहलीज पर कदम रखते है तो बाप के दिल का हाल जैसे कुदरत हमारे दिलों में मुंतकल कर देती है,

औलाद अगर बाप के दिल में अपने लिए मुहब्बत को खुली आंखों से वक्त पर देख ले तो शायद उसे यकीन हो जाए के दुनिया में बाप से ज़्यादा औलाद का कोई दोस्त नहीं होता,

साभार: Umair Salafi Al Hindi
Blog: Islamicleaks.com