Wednesday, March 24, 2021

सोसाइटी और मजहब

 



सोसाइटी और मजहब


अगर एक जगह कुछ लड़कियां बैठी हों और किसी का भाई वहां से गुजरे तो कोई एक लड़की अचानक बोल उठती है, " बहन ! तुम्हारा भाई कितना हैंडसम है, ये तो एक दम हीरो है "

लेकिन अगर एक जगह कुछ लड़के बैठे हों और किसी की बहन वहां से गुजरे तो क्या कोई लड़का ऐसा जुमला कहने की जुर्रात कर सकता है ??

नहीं कर सकते ना !!

इसलिए के सोसायटी ने तय कर दिया है के ऐसे जुमले सिर्फ लड़कियां कह सकेंगी, लड़के नहीं

मैं भी यही कहना चाहता हूं के हमारे ना चाहते हुए भी मज़हब से कहीं ज्यादा ताकतवर सोसायटी हो चुकी है,

दूसरी शादी करना कोई जुर्म नहीं, लेकिन औरत चाहे कितनी ही मजहबी हो वह हरगिज़ हरगिज़ इस चीज़ को तसलीम नहीं करती और सौतन के नाम पर खूनख्वार हो जाती है,

इसी तरह मजहब में शादी के लिए बालिग मर्द वा औरत के लिए उमर की कोई कैद नहीं है, 60 साल का मर्द 20 साल की लड़की से शादी कर सकता है और 60 साल की औरत किसी 20 साल के आदमी से शादी कर सकती है,

लेकिन देख लीजिए , ऐसा जब भी होता है सोसाइटी में तंज के तीर चलाना शुरू हो जाते हैं, हालांकि मजहब में " बेजोड़ " शादी का कोई तसव्वुर नहीं , बस औरत और मर्द बालिग हैं तो वो शादी कर सकते हैं उमर का गैप कोई मायने नहीं रखता ,

हमारी सोसाइटी में तो लोग जवान औलाद के होते हुए मजीद औलाद पैदा करने से भी शरमाते हैं क्योंकि सोसाइटी इसे अच्छा नहीं समझती,

मुस्ताहिक का जकात लेना उतना ही जरूरी है जितना साहब हैसियत का जकात अदा करना , लेकिन देख लीजिए

जकात लेना गाली बन गया है, मजबूर से मजबूर शरीफ आदमी भी उधार लेना गवारा कर लेता है, जकात नहीं लेता , हालांकि जरूरतमंद होते हुए भी जो जकात नहीं लेता वह भी एक तरह से गुनाहगार ही ठहरता है, क्योंकि वह अगर जकात नहीं लेगा तो कोई दूसरा गैर मुस्तहिक वह रकम ले उड़ेगा,

असल में सोसायटी अपने आपमें बड़ी जालिम चीज है, ये समाजी मामलात को देखते हुए उसूल खुद तय कर लेती है, ये मज़हब को मानती तो है लेकिन सिर्फ इबादत की हद तक , अमली मामलात में ये सिर्फ अपने उसूलों को तरजीह देती है,

पसंद की शादी मजहब में कोई जुर्म नहीं लेकिन हमारी सोसाइटी में ये अब भी किसी हद तक नपसंदीदा चीज़ ही समझी जाती है,

मजहब कहता है जब बच्चे बालिग हो जाएं तो जल्द से जल्द उनकी शादी कर दो, लेकिन सोसाइटी कहती है के सिर्फ बालिग नहीं बल्कि जब अपने पैरों पर खड़े हो जाएं तब करो, चाहे तब तक 35 साल तक ही क्यूं ना पहुंच जाएं, यही वजह है के हमारे समाज में बहुत कम ऐसे लड़के लड़कियां है जो 18 साल को उम्र को पहुंचते ही शादी शुदा हो जाते हैं,

मजहब कहता है औलाद को हराम लुकमे से बचाओ, सोसाइटी कहती है के नहीं औलाद के लिए जो कुछ हो सकता है कर गुजरो,

मज़हब जात बिरादरी को सिर्फ पहचान का जरिया करार देता है, लेकिन सोसाइटी इसे फख्र का जरिया समझती है,

कभी सोचिएगा गौर कीजिएगा , सोसाइटी के उसूल कोई नहीं बनाता ये अपना उसूल खुद तहरीर करती है, और लोग ना चाहते हुए भी इस पर अमल करने पर मजबूर हो जाते हैं "

सोसाइटी ने लोगों के जेहन में ये बात भी डाल दी है के मजहब के बगैर रहा जा सकता है लेकिन सोसाइटी के बगैर नहीं,

लेकिन लोग ये बात भूल गए हैं के सोसाइटी के बिना रहा जा सकता है मजहब के बगैर नहीं,

लेकिन फिल ज़माना हम मजहब को अपनी मर्ज़ी से चलाना चाहते हैं और सोसाइटी से रिश्ता तोड़ने को तैयार नहीं,

मजहब में अपनी तरफ से पैदा की गई मर्जी और सोसाइटी के उसी के इसी दोगले मेय्यार ने हमारे कौल वा फेल में अजीब सा तजात भर दिया है,

दीन वा दुनिया को अपनी चालाकी से राम करते करते हम अजीब सी मखलूक बन गए हैं,

साभार: Umair Salafi Al Hindi
Blog: Islamicleaks