3 मार्च 1193 ईस्वी (26 सफर 589 हिजरी) मंगल की शाम थी और सुल्तान सलाहउद्दीन अय्यूबी की बीमारी का ग्यारहवां दिन।
इनकी तवानाई बिल्कुल ख़त्म हो गई और उम्मीद दम तोड़ गई, रात को ऐसे वक़्त मुझे, क़ाज़ी अल-फ़ज़्ल और इब्ने ज़क़ी को बुलाया गया जिस वक़्त पहले कभी नही बुलाया गया था, इब्ने ज़क़ी का पूरा नाम अबुल माली मुहम्मद मुहयुद्दीन था और इब्ने ज़क़ी के नाम से मशहूर थे, यह हज़रत उस्माने गनी رضي الله ﺗﻌﺎﻟﯽٰ عنه के खानदान से ताल्लुक रखते थे, यह कानून, ईल्म ए दीन और साइंस के आलिम थे, सुल्तान सलाहउद्दीन अय्यूबी इनका बहुत एहतिराम करते थे, जब सुल्तान ने बैतूल मुक़द्दस को फ़तह किया तो मस्जिद-ए-अक़्सा में पहले जुमा का ख़ुतबा देने के लिए सुल्तान ने इन्ही को मुन्तख़ब किया था, बाद में इन्हें दमिश्क़ का क़ाज़ी मुक़र्रर कर दिया गया....
"हम गए तो अल-मलिक-उल-अफ़ज़ल ने कहा हम तीनों सारी रात उसके साथ रहे, वो सोगवार और घबराया हुआ भी था, क़ाज़ी अल-फ़ज़्ल ने ऐतराज़ किया और कहा कि रात भर लोग बाहर खड़े सुल्तान की सेहत की ख़बर सुनने का इन्तेज़ार करते है, अगर हम सारी रात अन्दर रहे तो वो कुछ और समझ लेंगे और शहर में गलत ख़बर फैल जाएगी, अल-अफ़ज़ल समझ गया, उसने कहा की हम लोग चले जाए, हमारी बजाए उसने अबु ज़ाफ़र को इस मक़सद के लिए बुला लिया कि अगर रात को सुल्तान सलाहउद्दीन पर नज़अ़ का आलम तारी हो गया तो इमाम अबु ज़ाफ़र सुल्तान के सरहाने क़ुरआन पढ़ेंगे। हम वहाँ से आ गए.....
"इसके बाद इमाम अबु ज़ाफ़र ने सुल्तान सलाहउद्दीन अय्यूबी की आख़री रात की जो सुनाई वो मैं तहरीर करता हूँ, उसने बताया कि उसने सुल्तान के सरहाने क़ुरआनी ख़्वानी की, इस दौरान सुल्तान पर कभी-कभी गशी तारी हो जाती, कभी होश आ जाता, आधी रात के बाद 4 मार्च 1193 ईस्वी (27 सफर 589 हिजरी) की तारीख़ शुरू हो चुकी थी, इमाम अबु ज़ाफ़र ने बताया:- "मैं सत्तरवें पारे की सूरह अल-हज पढ़ रहा था, मैंने जब पढा "ख़ुदा ही क़ादिर-ए-मुतलक़ है, बरहक़ है और वो मुर्दों को ज़िन्दा कर देता है और वो हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है" तो मैंने सुल्तान सलाहउद्दीन अय्यूबी की नहीफ सी सरगोशी सुनी, वोह कह रहे थे "यह सच है, यह सच है" यह सुल्तान के आख़री अल्फ़ाज़ थे, उसके फ़ौरन बाद सुबह की अज़ान सुनाई दी, मैंने क़ुरआन बन्द कर दिया, अज़ान ख़त्म होते ही सुल्तान सलाहउद्दीन अय्यूबी निहायत सुकून और इतमिनान से अपने ख़ालिक़-ए-हक़ीक़ी से जा मिले,
इमाम अबु ज़ाफ़र ने मुझे यह भी बताया कि अज़ान शुरू हुई यह आयत पढ़ रहा था "अल्लाह के सिवा कोई माबूद नही, हम उसी से मदद मांगते है" तो सुल्तान अय्यूबी के होंटो पर मुस्कुराहट आ गई और उनका चेहरा दमक उठा और वो इसी कैफ़ियत में अपने अल्लाह के हुज़ूर गए....
मैं जब पहुँचा उस वक़्त सलाहउद्दीन फ़ौत हो चुके थे, खुल्फ़ाए राशिदीन के बाद अगर क़ौम पर कोई कारी ज़र्ब पड़ी तो वो सुल्तान अय्यूबी के इंतेक़ाल की थी, किले, शहर, वहाँ के लोगो और दुनिया भर के मुसलमानों पर ग़म की ऐसी घटा छा गई जो सिर्फ ख़ुदा जानता है कि कितनी गहरी थी, मैंने लोगो को अक्सर कहते सुना है कि उन्हें जो शख़्स सबसे ज़्यादा अज़ीज़ है उसके लिए वो अपनी जान कुर्बान कर देंगे, लेकिन मैने कभी किसी को किसी के लिए जान कुर्बान करते नही देखा, अलबत्ता मैं कसम खाकर कहता हूँ कि सुल्तान अय्यूबी की ज़िन्दगी की आखरी रात हमसे कोई पूछता की सुल्तान अय्यूबी की जगह कौन मरने को तैयार है तो हम में से बहुत से लोग अपनी जाने कुर्बान करके सुल्तान अय्यूबी को ज़िन्दा रखते....
उस रोज़ शहर में जिसे देखो बेइख़्तियार आँसू बहाते देखा, लोग रोने के सिवा कुछ और सोचते ही नही थे, किसी शायर को मर्सिय्या सुनाने की इजाज़त न दी गई, किसी इमाम, किसी क़ाज़ी और किसी आलिम ने लोगो को सब्र की तलकीन न कि बल्कि वो खुद हिचकियाँ ले लेकर रो रहे थे, सलाहउद्दीन अय्यूबी के बच्चे रोते चीखते गलियों में निकल गए, उन्हें रोता देख कर लोग दहाड़े मार-मारकर रोते थे... ज़ोहर की नमाज़ का वक़्त हो गया, उस वक़्त सुल्तान की मय्यत को आख़री ग़ुस्ल देकर कफ़न पहनाया जा चुका था, ग़ुस्ल अदालत के एक अहलकार ने दिया था, ग़ुस्ल के लिए मुझे कहा गया था मगर दिल इतना मजबूत न था, मैंने इन्कार कर दिया, मय्यत बाहर लाकर रखी गई, जनाज़े पर जो कपड़ा डाला गया वो क़ाज़ी अल-फ़ज़्ल ने दिया था, जब जनाज़ा लोगों के सामने रखा गया तो मर्दों की दहाडों और औरतों की चीखों से आसमान का जिगर चाक होने लगा,
क़ाज़ी मुहयुद्दीन इब्ने ज़क़ी ने नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई, मैं कुछ नही बता सकता कि जनाज़े में कितने लोग थे, अलबत्ता यह बता सकता हूँ कि सब नमाज़े जनाज़ा में खड़े हिचकियाँ ले रहे थे और बाज़ बेकाबू होकर दहाड़े मार उठते थे, नमाज़े जनाज़ा के बाद मय्यत बगीचे के उस मकान में रखी गई जहाँ मरहुम ने अलालत के दिन गुज़ारे थे, अस्र से कुछ देर पहले सुल्तान सलाहउद्दीन अय्यूबी को कब्र में उतार दिया गया, लोग घरों को वापस गए तो यूँ लगता था जैसे लाशों के हुजूम चला जा रहा हो, मैं अपने साथियों के साथ कब्र पर क़ुरआन ख़्वानी करता रहा।"( क़ाज़ी बहाउद्दीन की याददाश्त यहाँ खत्म होती है).....
इन याददाश्तों के बाद यह बताना भी ज़रूरी है कि सुल्तान सलाहउद्दीन अय्यूबी की एक ख़्वाईश यह थी कि फ़लस्तीन को सलीबियों से पाक करे, इनकी यह ख़्वाईश तो पूरी हो गई, और दूसरी ख़्वाईश यह थी कि फ़तह बैतूल मुक़द्दस के बाद फ़रीज़ए हज अदा करे मगर सुल्तान की यह ख़्वाईश पूरी न हो सकी, उसकी वजह बीमारी नही थी, बल्कि यह कि सुल्तान के पास इतने पैसे नही थे, खुद ज़ाती रकम इतनी न थी कि हज अदा कर सके....
आह..!! हिलाल-ए-नो की दांती से फसल-ए-सलीब काटने वाला मर्द-ए-मुजाहिद, मिस्र, शाम (सीरिया) और फ़लस्तीन का सुल्तान जिसके कदमों में सल्तनतों के ख़ज़ाने थे, वो इतना गरीब था कि हज को न जा सका और इन्हें जो कफ़न पहनाया गया था, वो क़ाज़ी बहाउद्दीन शद्दाद और क़ाज़ी अल-फ़ज़्ल इब्ने ज़क़ी ने दर-पर्दा पैसे जमा करके खरीदा था....
आह..!! आज भी फ़लस्तीन सुल्तान सलाहउद्दीन अय्यूबी का मातम इसी तरह कर रहा है जिस तरह 4 मार्च 1193 ईस्वी के दिन दमिश्क की बेटियां रो रही थी....