Friday, November 27, 2020

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद

 



मौलाना अबुल कलाम आज़ाद

एक ऐसी सख्सीयत जिसने 27 सालों तक कुरआन को शब वा रोज़ अपनी फिक्र वा नजर के मौजू बनाया हो, उसकी एक एक सुरह , एक एक मकाम, एक एक आयत, एक एक लफ्ज़ पर वादियां तय की हों, ऐसा कैसे हो सकता है के वह सियासत के मामले में अपनी तिशनगी बुझाने के लिए कुरआन का साफ शफ्फाफ बहता ठंडा चश्मा नज़र अंदाज़ कर गलीज सियासत के गदले वा बदबूदार पानी से हलक तर करे ??
सही बात तो ये है कि आज़ाद ने दीगर शोबा हयात की तरह सियासत का तरीका भी कुरआन ही से तजवीज़ किया था, वह कहते हैं
" तमाम चीज़ों की तरह पॉलिटिक्स में भी यही दावत है के ना तो हुकूमत पर भरोसा कीजिए और ना हिन्दुओं के हल्का दरस में शरीक होइए , सिर्फ उसी पर चलिए जो इस्लाम की बतलाई हुई सिरात ए मुस्तकीम है "
दूसरी जगह कहते हैं
" हम इस्लाम को इससे बहुत बुलंद समझते हैं के इसकी पैरवी अपनी ज़िन्दगी के किसी शोबे में किसी दूसरी कौम की तकलीद पर मजबूर हो, वह दुनिया को अपने पीछे चलाने वाले हैं ना की खुद दूसरों के मुक़तदी बनने वाले , मुसलमान ए हिन्द को हिन्दुओं से नहीं बल्कि कुरआन से सीख कर अपना नस्बुल ऐन बनाना चाहिए, और जमूद की जगह हरकत, आहिस्तगी की जगह तेज़ी, बुजदिली की जगह हिम्मत, और हुकूमत पर एतमाद की बजाए अल्लाह और उसके बख्शे हुए दीन पर भरोसा रखना चाहिए, "
दरअसल मौलाना का अकीदा था इस्लाम एक मुकम्मल निज़ाम ए हयात है, हर मुश्किल का हल इसमें मौजूद है,
आज़ाद ने लिखा:
" इस्लाम अपनी तौहीद की तालीम में निहायत गैय्यूर है और कभी पसन्द नहीं करता के उसकी चौखट पर झुकने वाले किसी दूसरे दरवाजे के सायेल बने , मुसलमानों की अखलाकी ज़िन्दगी हो या इल्मी, सियासी, समाजी, दीनी, दुनियावी , हाकीमाना हो या महकूमाना , वह हर ज़िन्दगी के लिए एक मुकम्मल तरीन कानून अपने अन्दर रखता है, जिसने अल्लाह के हाथ पर हाथ रख दिया वह फिर किसी इंसानी दस्तगिरी का मोहताज नहीं रहा "
मौलाना ने मुसलमानों को दीनी तालीमात संग अपनी सियासत का ताजमहल तामीर करने का मशवरा दिया तो बहुत से लोगों ने उन्हें मज़हब को सियासत से दूर रखने का मशवरा दिया, इस बाबत मौलाना ने जवाब देते हुए कहा
" आप फरमाते हैं पॉलिटिकल मुबाहिस को मज़हबी रंग से अलग कर दीजिए, लेकिन अगर अलग कर दें तो हमारे पास बाक़ी क्या रह जाता है, हमारे अकीदे में हर वह ख्याल जो कुरआन के सिवा और किसी तालीमगाह से हासिल किया गया हो वह एक कुफ्र जैसा है, मुसलमानों के लिए इससे बढ़ कर शर्म एंगेज सवाल नहीं हो सकता के वह दूसरों के पॉलिटिकल तालीमों के आगे सर झुका कर रास्ता पैदा करे, उनको किसी जमात में शरीक होने की जरूरत नहीं, खुद दुनिया को जमात में शामिल करने वाले और अपनी राह पर चलाने वाले हैं, वह अल्लाह की जमात हैं, और अल्लाह की गैरत कभी गवारा नहीं कर सकती के उसके चौखट पर झुकने वालों के सर गैरों के आगे भी झुके, "
दरअसल मौलाना मुसलमानों को सियासी ऐतबार से उस मकाम पर पहुंचाना चाहते थे जहां से वह फैसला सादिर कर सकते ना के मौजूदा अक्सरियत के फैसले के सामने सर झुकाने वा ज़ुबान खम करने वाले बनते, मौलाना का यही ख्वाब था जिससे फिरकापरस्त लीडर तिलमिला उठते थे और निजात पाने के लिए कोशा रहते थे,
अफसोस उजलत पसन्द पारसी, राफज़ी शिया जिन्नाह (जिन्नह की गन्दी सियासत पर एडवोकेट नूर मुहम्मद की " तू साहब ए मंजिल है के भटका हुआ राही" का मुताला काफी दिलचस्प है) मुल्क की तकसीम पर ब्रिटेन, नेहरू, गांधी और पटेल वगेरह का आसान मुहरा बन गया,
जिन्नह को खुद अपनी मजहबी हालत की कोई फिक्र ना थी मगर उसने इस्लामी मुल्क के कयाम नारह मस्ताना बुलंद कर दिया के
" पाकिस्तान के नाम पर माचिस की एक डिब्बी भी मिल जाए तो उसे वह भी क़ुबूल है "
आज़ाद के ना चाहने और तकसीम रोकने की तमाम तर कोशिशों के बावजूद मुल्क की तकसीम का वाकया पेश आया और उसकी कीमत अदा करने में 15 लाख मुसलमानों की जाने गई, 90 हज़ार औरतों और बच्चियों की इज़्ज़त तार तार हुई, अरबों की जायदाद बर्बाद हुई लेकिन इन सब के बावजूद मजहब के नाम पर एक चूं चूं के मुरब्बा नाकाम, फ्लॉप, मफलूज रियासत वजूद में अाई , जो सिर्फ 20 सालों में टूट फूट भी गई,
लेकिन मुसलमानों का इज्तेमाई सियासी शिराजाह मुंतशर हो जाने का सबसे बड़ा नुकसान भारत के मुसलमानों को झेलना पड़ा, राफज़ी जिनाह और उसके हमनवांओ की बदतरीन सियासी हिमाकत के बाद भारत में मसलकी गद्दी नशीन गुम्बादी मुल्लों की तंजीम जमीअत ए उलेमा की कांग्रेसी नवाजी का खामियाजा भारत के मुसलमान आज भी भुगत रहे हैं, तकसीम के बाद जमीअत ए उलेमा ने उम्मत को कांग्रेस की गुलामी पर लगा कर रही वही कसर पूरी कर दी,
ये दुरुस्त है और तकसीम के बाद वाकयात ने साबित भी किया है के मुल्क की तकसीम किसी मसले का हल नहीं था, बल्कि ये खुद एक बड़ा संगीन इंसानी, समाजी वा सियासी मसला था, लेकिन जिन्नाह और उसके हमनवाओ ने पूरे बर्रे सगीर को मज़हब की पसमांदा आग में झोंक दिया
तकसीम के बाद भी मौलाना आज़ाद ने भारत में रह जाने वाले मुसलमानों कि फलाह के लिए काफी बहतरीन कोशिशें की लेकिन मुल्क की तकसीम की वजह से मौलाना की सारी कोशिशों का दायरा बहुत महदूद हो चुका था,
साभार : Umair Salafi Al Hindi