गुमनाम अहले हदीस
काज़ी अब्दुल नबी गंगोही (1583 ईसवी) :शाह वलीउल्ला मुहद्दस देहलवी मरहूम से तकरीबन दो सदी पहले एक अहले हदीस आलिम का ज़िक्र
क़ाज़ी अब्दुल नबी बिन शेख अहमद बिन शेख अब्दुल कुद्दूस गांगोही अरज़ ए हिन्द के नामूर आलिम थे,
इमाम अबू हनीफा की औलाद ए अमजद में से थे, अकबर के ज़माने में सदर उल सुदूर के मनसब पर थे, काज़ी सहाब में शुरुआत में अपने ऐतराफ के उलेमा से इस्तीफादा किया उसके बाद कई बार हिजाज़ ए मुकद्दस का सफर किया और लंबे समय तक मक्का मुकररमा वा मदीना मुनव्वरा में मुकीम रहे, हिजाज़ के कीबार उलेमा से हदीस का इल्म हासिल किया,
काज़ी साहब का आबा वा अजदाद मसलक ए तस्सव्वुफ (सूफी) से वाबस्ता थे
समा और रक्स की महफिलें सजाते थे, वहदत उल वजूद के पुरजोर हामी थे लेकिन काज़ी साहब हदीस की तहसील के बाद मसलक मुहद्दीसीन पर कायम हो गए और अपने बाप दादा के तरीके की मुखालिफत की, उनके बाप ने जवाज़ ए समा में रिसाला लिखा उन्होंने रद में रिसाला लिखा,
मौलाना हकीम अब्दुल हई हुसैनी उनके हालात में लिखते हैं
’’ثم سافر إلی الحرمین الشریفین وسمع الحدیث بھا عن الشیخ شھاب الدین أحمد بن حجر المکي وعن غیرہ من المحدثین، وتردد إلی الحجاز غیر مرۃ، وصحب المشایخ مدۃ طویلۃ حتی رسخ فیہ مذھب المحدثین، فرجع إلی الأھل والوطن وخالفھم في مسألۃ السماع والتواجد ووحدۃ الوجود والأعراس وأکثر رسوم المشایخ الصوفیۃ ونصر السنۃ المحضۃ والطریقۃ السلفیۃ واحتج ببراھین ومقدمات، فخالفہ والدہ وأعمامہ فأوذی في ذات اللّٰہ من المخالفین، وأخیف في نصر السنۃ حتی انھم أخرجوہ من الأھل والوطن‘‘ ( نزہۃ الخواطر ص: ۳۸۰)
" फिर हरमैन शरीफैन का सफर किया और वहां शेख शहाबुद्दीन अहमद बिन हज़र मक्की और दीगर मुहद्दीसीन से हदीस की समा अत की, कई बार हिजाज़ का सफर किया और लंबे अरसे तक वहां के मशैख की सोहबत में रहे यहां तक के मसलक मुहद्दीसीन में मुनसलिक हो गए, फिर अपने घर वा वतन वापस लौटे और मसला समा वा तवाजीद, वहदत उल वजूद, आरास, अक्सर रस्म ओ मसाईख सूफिया के मुखालिफ हो गए, दालायेल वा सबूत के साथ सुन्नत खालिस और तरीका सलाफिया के लिए डट गए, उनके वालिद और चाचा उनके मुखालिफ हो गए, मुखालिफ ने उन्हें अल्लाह की राह में बहुत तकलीफ़ पहुंचाई , नुसरत सुन्नत की वजह से उन्हें बहुत डराया गया यहां तक के उन्हें घर वा वतन से निकाल दिया गया "
( नुजहत उल खवातिर पेज 380)
फिर वक़्त ने पलटा खाया, उनके इल्म की शोहरत जलालुद्दीन अकबर तक पहुंची, 941 हिजरी में बादशाह अकबर ने उन्हें हिन्दुस्तान के सदर उल सुदूर के मनसब पर बिठा दिया, पूरे हिन्दुस्तान की मजहबी कयादत अब उनके पास थी, मुल्क के तमाम उलेमा वा काज़ी उनके मातहत थे, इस मनसब पर जो ताकत वा उरूज़ उन्हें हासिल हुआ वा ना उससे पहले किसी को हासिल हुआ और ना ही उनके बाद किसी को मिला, एक अरसा बाद अकबर के ज़हनी खयालात में इंकलाब ए अज़ीम बरपा हुआ, दीन ए हक से वह फिर गया और उलेमा ए हक से बेज़ार,
उसकी गुमराह फिक्र की राह में काजी साहब सबसे बड़ी रुकावट थे, उसी दौरान के अहम वाकया पेश हुआ, मथुरा के काज़ी अब्दुर्रहीम ने सदर अस सुदूर की खिदमत में ये इस्तेगासा भेजा के मथुरा के मुसलमान एक मस्जिद तामीर करना चाहते थे उसके लिए उन्होने एक जगह का इंतजाम भी कर लिया था और इमारती समान भी वहां रख दिया था के एक सरकश वा बा असर हिन्दू ब्राह्मण ने वह तमाम समान उठा लिया और उस मस्जिद की जगह पर एक मंदिर तामीर शुरू कर दी, मैंने जब बाज़ पुर्स की तो उसने लोगों के सामने रसूल अल्लाह की तौहीन का इरतेकाब किया, इस्लाम और मुसलमानों के लिए सख्त अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किए, मामला संगीन था,
दरबार ए अकबर तक भी ये बात पहुंची ये बात साबित हो गई के इस हिन्दू ने रसूल अल्लाह की तौहीन की थी, उसे जेल में डाल दिया गया , उलेमा के दो गिरोह हो गए, एक ने जुर्माने और मौत से कम की सजा पर रजामंद हुए, काज़ी साहब शरीयत की रू से मौत की सजा देने पर रजामंद थे,
उन्होंने कई बार अकबर से उस मौत कि सजा देने की इजाज़त तलब की, अकबर की हिन्दू रानियां और दरबार कर खुशामदी उलेमा क़ाज़ी साहब के सख्त मुखालिफ थे और हिन्दू ब्राह्मण की रिहाई चाहते थे, अकबर ने साफ लफ़्ज़ों में कतल की इजाज़त नहीं दी मगर हर बार यही कहा के शरई सज़ाओं का फैसला आपसे ताल्लुक रखते हैं और इस तरह वा मामले को टालता रहा, बिला आखिर काजी साहब ने ब्राह्मण के कतल का फैसला सुना दिया, ये सुनकर बादशाह अकबर को सख्त गुस्सा आया, चापलूस उलेमा ने काज़ी साहब के खिलाफ अकबर को खूब भड़काया , ये भी कहा गया के शेख अब्दुल नबी इमाम अबू हनीफा की औलाद में से हैं और इमाम अबू हनीफा का मसलक ये है के इस्लामी हुकूमत के मातहत जिम्मी (गैर मुस्लिम) अगर रसूल अल्लाह मुहम्मद (sws) की तौहीन करे तो उसका ये काम अहद शिकनी और अब्रा ए ज़िम्मा का बा अस नहीं बनता और ये बात फिकाह हनाफी की कुतुब में सराहत के साथ मौजूद है, हैरत है कि काज़ी अब्दुल नबी ने अपने आबा वा अज दाद के मसलक से इन्हेराफ क्यूं किया ??
अकबर के दिल में मज़हबी बेज़ारी के जो जज़्बात परवान चढ़ रहे थे वह एक दम उभर कर सामने आ गए, मूल्ला मुबारक और दीगर दुनिया परस्त उलेमा की तरकीब वा मशवरे से अकबर ने इजतेहाद का दावा किया और अपने इजतेहाद पर ज़बरदस्ती उलेमा से फतवे लिखवा लिया,
काज़ी अब्दुल नबी को भी ज़बरदस्ती पकड़ कर लाया गया और उनसे दस्तखत करवाया गया, भरे दरबार में उनकी बेइज्जती की गई, अकबर ने दीन ए अकबर पैदा कर लिया लेकिन उसे काज़ी सहाब से बार बार मुखालिफत और रोज़ रोज़ की मुखासिमत (विरोध) का सामना था, तंग आकर उसने काजी साहब को मक्का मुकररामा चले जाने का हुकम दिया, उस ज़माने में हुक्मरान बतौर सजा भी मुखालिफ को हरमैन भेजा करते थे,
काजी साहब कुछ अरसा वहां रहे फिर रजब 989हिजरी को बादशाह की इजाज़त के बिना हिन्द से हिजरत कर गए, उनकी वफात का वाकया बहुत अफसोस नाक है,
एक रिवायत के मुताबिक अकबर ने उन्हें मुहासबा वा बाज़ पूर्स के लिए अपने वज़ीर राजा टोडरमल के हवाले कर दिया था जिसने उन्हें जेल में डाल दिया और शदीद तकलीफ पहुंचाई जिनको सहन ना कर सकने की वजह से काज़ी साहब 991 हिजरी मुताबिक (1583ईसवी) में वफात पा गए,
दूसरी रिवायत के मुताबिक अकबर ने उनका मामला अबू फजल के सुपुर्द कर दिया वह पहले से ही उनसे दुश्मनी वा खुन्नस रखता था उसने उनको बंदी बना लिया और जिस्मानी तकलीफ दी और आखिर में गला घोंटकर क़त्ल कर दिया,
(मुंतखब तवारीख 433-435, अल नूरुल साफिर 496-495, तज़किरा उलेमा ए हिन्द पेज 325-327, नजहतुल ख्वातिर पेज 380, बज़्म तैमूरी या पेज 93-94, फ़ुकुहा ए हिन्द 3/629)
साभार: Umair Salafi Al Hindi
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