तलाक देने का हक मर्दों को ही क्यों है और मुनकर ए हदीस के शोशे - (किस्त 5)
शरीयत इस्लामिया में तलाक एक बुरी चीज है इसीलिए अल्लाह ने मियां बीवी के इख्तेलाफात की सूरत में मियां बीवी को एक हुक्म तज्वीज़ करने का हुक्म दिया है कि वह इमकानी हद तक उनके इख्तेलाफ़ात दूर कर दे , और उन में सुलाह करा दें, अगर इख्तेलाफात दूर ना हो सके तो आखरी हक तलाक मर्द को दिया गया है ,लेकिन मुनकर साहब फरमाते हैं कि
"लेकिन अगर सालसी बोर्ड (सुलह कराने वाली संस्था) की कोशिशें नाकाम रही और वह इस नतीजे पर पहुंचे कि उनकी बाहिमी रिफाकत मुमकिन नहीं, तो वह अपनी रिपोर्ट अदालत के सामने पेश करेंगे (और अगर उन्ही को आखरी फैसला का इख्तियार होगा तो खुद ही फैसला कर देंगे) इस तरह मुवाहेदा (निकाह) खतम हो जाएगा"
जवाब:
देखा आपने के इस मफ़क्किर ए क़ुरआन ने बिना दलील मर्द से हक तलाक़ को छीन कर अदालत को सौंप दिया है, या फिर दूसरी सूरत यह बतलाइए है कि इस हक तलाक में मियां बीवी दोनों बराबर के हकदार हैं,
अब देखिए इन दोनों बातों की तरदीद के लिए कुरान की आयत काफी है , अल्लाह का इरशाद है
فَاِنۡ طَلَّقَہَا فَلَا تَحِلُّ لَہٗ مِنۡۢ بَعۡدُ حَتّٰی تَنۡکِحَ زَوۡجًا غَیۡرَہٗ
"अगर वह (शौहर) उस (औरत को तीसरी) तलाक दे दे तो उसके बाद जब तक औरत किसी दूसरे शख्स से निकाह ना करें उस पहले (शौहर) पर हलाल ना होगी" (क़ुरआन अल बकरा आयात 230)
देखिए इस आयत में طَلَّقَہَا वाहिद मुज़कर गायब का सेगा इस्तेमाल हुआ है, लिहाजा तलाक देने वाली अथॉरिटी ना अदालत हो सकती है ना समाज और ना ही बीवी को इस मामले में शरीक बनाया जा सकता है,
यह अदालत का शोशा इसलिए छोड़ा गया है कि इस्लाम में औरतों को भी खुला का हक दिया है, लेकिन यह चूंकि अदालत के जरिए ही हो सकता है ,
लिहाज़ा मर्द औरत के हुकूक में बराबरी का हक पैदा करने की खातिर अदालत को इस में ला घुसेड़ा गया है, या फिर मर्द औरत में बराबर का हिस्सेदार क़रार देने से इस बराबरी की कोशिश की जा रही है
साभार : Umair Salafi Al Hindi
Blog: islamicleaks.com