Tuesday, September 22, 2020

MARDON KA AURAT KO SAZA DENE KA IKHTIYAR AUR MUNKAR E HADITH KI JIHAALAT (PART 4)

मर्दों का औरतों को सज़ा देने का इख्तियार और मुंकरे हदीस की हठधर्मिता (किस्त 4)
अब इस आयत के तीसरे टुकड़े पर आते हैं
وَ الّٰتِیۡ تَخَافُوۡنَ نُشُوۡزَہُنَّ فَعِظُوۡہُنَّ وَ اہۡجُرُوۡہُنَّ فِی الۡمَضَاجِعِ وَ اضۡرِبُوۡہُنَّ ۚ فَاِنۡ اَطَعۡنَکُمۡ فَلَا تَبۡغُوۡا عَلَیۡہِنَّ سَبِیۡلًا
"और जिन औरतों से तुम्हें सरकशी का डर हो उन्हें समझाओ, सोने की जगहों में उनसे अलग रहो और मारो, फिर अगर वे तुम्हारी बात मानने लगें तो बिला वजह उन पर हाथ चलाने के बहाने तलाश न करो " ( क़ुरआन अल निशा आयात 34)
अब इस हिस्सा आयत की तफसीर में मुनकर साहब ने जो पॉइंट पेश फरमाए आए हैं वह ये है :
1- बात मियां बीवी की नहीं हो रही है बल्कि समाज के आम मर्दों और औरतों की हो रही है यानी समाज के मर्द समाज की औरतों को रिज्क मुहैया करें ,
2- उसके बाद भी अगर औरतें अपने खुसूसी फरायेज से बिना परेशानी सरकशी अख्तियार करें, जैसा कि आजकल बाज़ मगरिबी मुल्कों में हो रहा है कि औरतों ने मर्द बनने की चाहत में बिला मकसद अपना फरायेज़ को छोड़ दिया जिससे नस्ल ए इंसानी का सिलसिला ही रुक जाता है, तो समाज ऐसा इंतजाम करके उनको समझाएं ,
3- अगर औरतें समझाने पर बाज़ ना आए तो फिर उन्हें उनके ख्वाबगाह में छोड़ दिया जाए, यह एक किस्म की नजरबंदी की सजा होगी ,
4- और अगर औरतें इस पर भी बाज़ ना आए तो फिर उन्हें अदालत की तरफ से बदनी सजा भी दी जा सकती है,
जवाब
देखा आपने एक आयत के चंद इकट्ठे और मजबूत अल्फाज को अपने मन से कभी तो समाज की तरफ मोड़ दी जा रही है, तो कभी अदालत की तरफ,
1- यहां सवाल ये पैदा होता है कि
فَعِظُوۡہُنَّ
की तशरीह आखिर समाज कि तरफ क्यूं है ?? अदालत की तरफ क्यूं नहीं ?? और
وَ اضۡرِبُوۡہُنَّ
की तशरीह समाज को छोड़ अदालत की तरफ क्यूं चली गई ??
2- अगर समाज के आम मर्द समाज कि आम औरतों को रिज्क मुहैय्या करने लगें तो इससे ज़्यादा बेहयाई की और क्या सूरत हो सकती है जबकि उस हसूल ए रिज्क का मकसद भी बकौल मुंकर साहब ने औरतों कि अंदरूनी सलाहियतें को नशों नुमा बना देना है,
3- فَعِظُوۡہُنَّ
"के तहत अब समाज पर एक और ज़िमेदारी ये भी आ पड़ी है के वह ऐसी सरकश औरतों को समझाया करे जो मर्द बनने की चाहत में अपने अहम फराएंज छोड़ देती है क्यूंकि उससे नसल ए इंसानी रुक जाती है,"
लेकिन मूंकरे साहब की ये बात भी अक्ल और मुशाहिदे के खिलाफ है, यूरोप की औरतें ,मर्द इस लिहाज से बनती हैं कि वह मर्दों में अज़ादाना इख्तेलात रखती है, लेकिन जहां तक उनके फाराएंज मनसबी पूरा करने का ताल्लुक है तो वह निकाह भी ज़्यादा करती है, ला तादाद हरामी बच्चे भी पैदा होते हैं, ऐसे हरामजादे बच्चे प्राइवेट या सरकारी तहवील में परवरिश भी पाते रहते हैं, नसल ए इंसानी भी बदस्तूर चलती रहती है, और रुकती भी नहीं , तो फिर इस मंतक का क्या फायदा ??
4- औरतों को उनकी ख्वाबगाह में छोड़ने का मतलब " नजरबंदी " भी क्या खूब मज़ाक है,
मगर सवाल ये है के ये नजरबंदी करेगा कौन ?? समाज या हुकूमत ?? क्यूंकि यहां मियां बीवी का तो लफ्ज़ ही नहीं है,
अपने बयान कि खुद तरदीद!!
ताज्जुब की बात ये हैं के खुद मुनकर साहब ने मफ़हूम उल क़ुरआन में وَ اہۡجُرُوۡہُنَّ فِی الۡمَضَاجِعِ
का मतलब ये लिखा है,
"तो अगला कदम ये होना चाहिए के उनके शौहर उनसे अलहेदगी इख्तियार कर लें और इस नफसियाती असर से उनमें ज़हनी तब्दीली पैदा करने की कोशिश करें " (मफ़हूम उल क़ुरआन जिल्द 1 पेज 179)
गोया मफ़हूम उल क़ुरआन कि इस वज़ाहत ने आपके सब किए कराए पर पानी फेर दिया,
जब ये साबित हो गया के यहां बात बीवी और शौहर की है तो मालूम हुआ के,
1- शौहर ही अपनी बीवी को रिज्क देने के ज़िम्मेदार हैं, ना की आम समाज के आम मर्द समाज कि आम औरतों को,
2- قٰنِتٰتٌ
से मुराद बीवीयो का शौहरों के लिए फरमाबरदार होना है,
3- نُشُوۡزَ
का मतलब शौहर की हुकम उदूली और शरकशी है, ना की औरत के अपने जिंसी फराइयेज से सरकशी,
4- فَعِظُوۡہُنَّ وَ اہۡجُرُوۡہُنَّ , وَ اضۡرِبُوۡہُنَّ ۚ
में जमा मुज़ककर सब तशरीह शौहरों की तरफ मुड़ती हैं, यानी सरकशी की सूरत में वही उन्हें नसीहत करें, फिर उनसे हमबिस्तर होना छोड़ दें, फिर भी अगर बाज़ ना आए तो मार भी सकते हैं,
5-وَ اہۡجُرُوۡہُنَّ فِی الۡمَضَاجِعِ
का मतलब शौहरों का औरतों से हमबिस्तर ना होना है, ना की समाज या हुकूमत का उन्हें नजरबंद करना,
6- रिवायत वा अहले सुन्नत तफसीर में जो कुछ दर्ज है वह सब ठीक है,
साभार : Umair Salafi Al Hindi