Sunday, September 13, 2020

AURAT- ISLAM AUR TAHZEEB KI KASHMAKASH ME (PART 1)




औरत - इस्लाम और तहज़ीब की कशमकश में (किस्त १)

अल्लाह ताला ने तमाम बनू ए इंसान को अशरफुल मखलूक बनाया उसमें भी औरत को नाकाबिले फरामोश हुकूक दिए,

इस हैसियत से के इस्लाम से पहले औरत कमजोर समझी जाती थी मजलूम थी और समाज में उसका कुछ वजन न था जिंदा दफन कर दी जाती थी

इस्लाम ने औरतों को बुलंद मकाम वा मर्तबा अता किया फिर उसके साथ अदल ओ इंसाफ का हुकम और उसके हुकूक बताएं और अमल पैरा ना होने पर सख्त अजाब की वाईद (सजा) सुनाई गई , फितरी कमजोरी का लिहाज करते हुए उसके काम का दायरा तय किया,

मौजूदा दौर का तजुर्बा करे तो मालूम होगा की औरत के गोशे और पर्दे का क्या हाल है , ना हुकूक उल जवजियत (Rights Of Husband) की कुछ परवाह है और ना हिजाब का कुछ एहितीमाम और तो यह है कि बेपर्दगी और बेहयाई से घूमने फिरने को तहज़ीब का नाम दिया जा रहा है,

और ऊपर से यह नारेबाजी के

"औरतों को गुलामी की जंजीरों से बाहर निकालो औरत के साथ इंसाफ करो औरत की सलाहियत से फायदा उठाओ वगैरह "

इस तरह के नारे दिल को भा जाने वाले नारे दरअसल अपने पीछे एक ही मकसद रखते हैं औरतों के लिए इस्लाम ने जो दायरा बनाया गया है उसको उस दायरे से बाहर निकाले इसमें कुछ शक नहीं कि दुश्मन ए इस्लाम ने इस दरवाजे से अच्छी खासी कामयाबी हासिल कर ली है,

इसमें कुछ अजीब नहीं के इस्लाम के दुश्मनों की इन कार्यवाहीओं के शिकार गैर मुस्लिम समाज हो,

ताज्जुब और अफसोस तो इस बात पर है कि हमारे वह समाज जहां "काल अल्लाह"और " काल ए रसूल" की सदाएं हो उनके इस फरेब में आ जाएं,

तारीख इस्लाम से यह बात बिल्कुल साफ वजह है कि औरत ने इस्लाम के अता करदा दायरे में रहते हुए ऐसे ऐसे कारनामे अंजाम दिए कि उसे देखकर तहजीब परस्तो के यह मत वाले भी नहीं कर सकते हैं

आज भी ममलकत अरब में खवातीन का इस्लाम के अता करदा दायरे को लाज़िम पकड़ने की मुमानियत हो या मुआशरीयत हर जगह अच्छे नतीजे सामने आ रहें हैं, लिहाज़ा औरतों के हक में इस्लामी हुकूक फायदेमंद है, इस्लामी हुकूक औरतों को शान ओ शौकत की वजह है,

इसमें कोई शक नहीं के हक वा बातिल की कशमकश से अजल वा अब्द तक जारी रहेगी, हक के आलंबरदार हमेशा से इस्लाम के खिलाफ उठने वाले आग का मुकाबला करते आए हैं और कर रहें हैं, उसके बावजूद दुश्मन ए इस्लाम ऐसे घात लगाए बैठें है के कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते,

बदकिस्मती से हमारे बहुत से लिबरल और मुनकर ए हदीस एहबाब उनके फरेब में आ गए हैं,

" यूरोप की गुलामी पे रजामंद हो तो मुझको गिला तुझसे है यूरोप से नहीं "

प्यारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम क्या ही सच फरमा गए

" तुम जरूर अपने से पहले लोगों के तौर तरीके और चाल चलन पर बगैर किसी तरदीद के चलोगे, हत्ता कि अगर वह किसी गोह के सुराख में दाखिल हो तो तुम भी दाखिल हो जाओगे, सहाबा ए किराम ने अर्ज किया:- क्या यह यहूदी और नसरानी है ?? आपने फरमाया:- हां !"

दिल को गमगीन कर देने वाली बात यह है कि इस्लाम के नाम लेवा और कलमा गो हजरात औरतों को सरे बाजार ला खड़ा करने वालों, बेहयाई बेपर्दगी की नुमाइश करने वालों , और औरतों को फैशन की आड़ में खाज़ीब नजर बनाकर उसके मटक मटक कर चलने को मॉडर्न तहज़ीब का नाम देने वालों कि पुरजोर ताईद करने में मस्त और मगन नज़र आते हैं,

इसमें दो राय नहीं के इसके नताइज़ किस कदर भयानक है के रोज़ाना कितनी अस्मतें लुट रही हैं, गांव हो या शहर हर जगह बलात्कार के रोज़ वाकयात का जहूर रोज़ का मामूल बन चुके हैं,

इसके अलावा इस आजादी निस्वां की तहरीक से जो जुर्म, फाहिशात वा हादसात होते जा रहें हैं जो एक अलग मौजू की हैसियत रखते हैं,

अब घिनौनी सूरत ए हाल का तद्राक यही है के इस्लाम ने जो दायरा खवातीन को अता किया है उस दायरे में उसको रखते हुए हर वह काम इसमें लिए जाएं जो उसकी तबीयत के मुताबिक हों, वरना अपनी आंखों के सामने अपनी मां, बहनों और बच्चों की इज्जत का सरे बाज़ार नीलाम होते देखना लाजमी है,

इसको अल्लाह ताला ने सूरह ताहा आयात 124 में यूं वाज़ेह किया है

" और जो शख्स मेरी याद से रूगरदानी करेगा वह दुनिया में परेशान हाल रहेगा और कयामत के दिन हम उसे अंधा उठाएंगे "

सनद रहे तहरीक आजादी नीस्वां की तारीख सिर्फ 80 साल पुरानी है, दरअसल हकीकत में इसकी शुरुआत 20 मार्च 1919 को मिस्र में हुई, फिर देखते ही देखते ये मर्ज सारे आलम ए इस्लाम में फ़ैल गया,

इस तहरीक का हकीकी टारगेट ये हैं

1- बेहयाई को सारी दुनिया में आम करना

2- नौजवानों को इसके धोखे में उलझाए रखना

3- नई नसल के सामने तारीख ए इस्लाम और सलफ सालिहीन के हैरतअंगेज कारनामे पर पर्दा डालना,

4- आजादी निसवा के नारे से बेहयाई को मजबूत करना,

ताकि इस रास्ते से आलम ए इस्लाम की जासूसी के जरिए बा आसानी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा जा सके और मुस्लिम आबादी को दीन से बेज़ार कर दें,

शेख अब्दुल अज़ीज़ बिन अबदुल्लाह बिन बाज़ फरमाते हैं :-

" बिला शक वा शूबह यहुद , मुसलमानों को बेदीन और बद अखलाक बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते, उनके बहुत से बड़े इदारे हैं जिनमें से कुछ में उनकी दखल हो चुकी है और कुछ की तकमील में हमेशा कमरबस्ता रहते हैं, ये लोग एक तरफ मुसलमानों से ताकत और असलहा से लैस होकर जंग करते हैं तो दूसरी तरफ उनके अफकार वा खयालात में बिगाड़ ,निहायत ही मक्कारी और चालाकी से करते हैं "

( मजल्लह जामिया तुल इस्लामिया 59/1403हिजरी)

यकीनन दुश्मन ए इस्लाम ने इस्लामी तहज़ीब वा तमद्दुन और मुहम्मदी इस्लाम के मुकाबले में मगरिबी तहज़ीब का वा तमद्दुन और सबाई इस्लाम को लाने के लिए तमाम आलम ए कुफ्र के आशीर्वाद के बाद आसान सा रास्ता तलाश कर लिया है,

वह है "औरत की जात" क्यूंकि दुश्मन ए इस्लाम ये बात खूब अच्छी तरह जानते हैं के औरतों की दुरुस्तगी में सारे समाज की दुरुस्तगी है और औरत के बिगाड़ में सारे समाज की तबाही है, और वैसे औरत फितरी तौर पर नई नई चीज को क़ुबूल करने की आदी है, अगर्चे वह उसके दीन वा आबरू के खिलाफ हो,

सही बात तो ये है के औरत दायरा ए इस्लाम में रहकर शान वा शौकत की मल्लिका और कौमों की इज्जत होती हैं, वैसे औरत का मौजूदा दौर में इस्लाम के अता करदा दायरा में रहना बहुत जरूरी है, सच कहा है जिसने भी कहा है,

" यकीनन औरतों की तरफ नज़र जमाए हुए मर्द उन भेंडियों की तरह हैं जो गोश्त के टुकड़े को पाने के लिए चक्कर लगा रहें हों।

अगर ये गोश्त उन दरिंदों से महफूज़ ना कर लिया जाए तो यकीनन बेगैर किसी चुं चरा के वह उसको हड़प कर जाएंगे ".....

जारी.....

ये पोस्ट दो किस्तों में होगा ,

साभार : Umair Salafi Al Hindi
Blog: islamicleaks.com