اَلَّذِینَ آمَنُوا وَھَاجَرُوا وَجَاھَدُوا فِی سَبِیلِ اللّٰہِ بِاَموَالِھِم وَاَنفُسِھِم اَعظَمُ دَرَجَةً عِندَ اللّٰہِ وَاُولٓئِکَ ھُمُ الفَائِزُونَ
"जो लोग ईमान लाए और हिजरत की और जिहाद किया राह ए खुदा में अपने मालों और जानो के साथ उनके लिए अपने रब के पास बहुत बड़े दर्जे है और ये कामयाब है"
(क़ुरआन अल तौबा )
नबी ए करीम मुहम्मद (sws) ने फ़रमाया:
" सुबह या शाम एक दफा राह ए खुदा में निकलना दुनिया से बेहतर है " ( सही बुखारी)
दुनिया में जब कोई कौम गुलाम हो जाती है तो बद किस्मती से उस कौम के ज़ेहन वा फिक्र की परवाज़ रह जाती है और उसके हर चीज पर गुलामी की मोहर लग जाती है, इसलिए गुलाम कौम के अफ़राद अपने आकाओं की रविश पर चलना उनके तर्ज मुआशिरत को अपनाना और उनकी हर बात की जी हुजूरी करना अपना फारिजा बना लेते हैं और उस पर फख्र करते हैं,
हिन्दुस्तान पर अंग्रेज़ हुकूमत,
हिन्दुस्तान जहां के लोग आराम वा सुकून की ज़िन्दगी बसर कर रहे थे लेकिन अंग्रेज़ ऐसी साजिशी वा शातिर कौम ने उनके लिए चैन वा सुकून की सांस लेना दूभर कर दिया और उनकी ज़िंदगी अजीरन करने के लिए तरह तरह की तदबीर अख्तियार की अंग्रेज़ अपने मकर वा फरेब के जरिए हिन्दुस्तान पर कब्ज़ा करने की कोशिश कर रहे थे , औरंगज़ेब की वफात के बाद मुल्क की अवाम खुद आपस में लड़ने लगी अंग्रेज़ ने उस इख्तेलाफ वा इतेशार का खूब फायदा उठाया और नवाब सिराजुद्दौला को शिकस्त दे कर पहले बंगाल पर कब्ज़ा किया और कुछ दिनों बाद ही मद्रास वा कलकत्ता पर भी कब्ज़ा कर लिया और हुकूमत करना शुरू कर दिया फिर धीरे धीरे पूरे हिंदुस्तान पर 1865 में कब्ज़ा कर लिया इसलिए हिन्दुस्तानियों को इस काले दिन को देखने पर मजबूर होना पड़ा,
हमारा खून भी शामिल है तजईयुं ए गुलिस्तां में।
हमें भी याद कर लेना चमन में जब बहार आए।
हिन्दुस्तान की तारीख में अहले हदीस का वजूद बहुत ही पुराना है यही वह लोग थे जिन्होंने हर दौर में बातिल के हर रेले के सामने बांध बांधा,
वह बिजली का कड़का था या सूरत हादी।
ज़मीन हिन्द की जिसने सारी हिला दी।
जंग आजादी में उलेमा ए अहले हदीस
हिन्दुस्तान का वह इंकलाबी दौर जो जंग ए आजादी से वाबस्ता है तंग नज़री और तास्सुबात का चस्मा उतारकर खुले दिमाग के साथ तमाम हालात का बारीक बीनी से जाएंजा लिया जाए तो सिर्फ और सिर्फ एक जमात नज़र आएगी जिसने खुलूस और नेक जज्बे के साथ अंदरूनी ताकतों और अंग्रेज़ी ज़ुल्म के खिलाफ आजादी का अलम लहराया और पूरी सरगर्मी से जंग में शरीक रही और बिला शक वा शुबाह वह जमात, जमात अहले हदीस ही नज़र आएगी,
तारीख के सुनहरे पन्ने उलेमा ए अहले हदीस की बे मिसाल कुर्बानियों से भरपूर है, और हिन्दुस्तान की ज़मीन उनके खून से अब तक लाल जार बनी हुई है, उन्होंने अंग्रेज़ो कि मुखालिफत में अपनी जानें कुर्बान की, फासियों पर वह लटकाए गए, काला पानी भेजे गए, जेल की कैद काटी, उनकी जायदादे ज़ब्त हुई, और सारा दिन उनको भुखा प्यासा रख कर लगातार पीटा गया,
कुछ ऐसे नक्स भी राह वफा में छोड़ आए हो।
के दुनिया देखती है और तुमको याद करती है।
हिन्दुस्तान में जंग आजादी की तहरीक और उसके बानी होने का शरफ हुज्जत उल इस्लाम हज़रत शाह वलीउल्ला मुहड्डिस देहलवी को हासिल है जिन्होंने एक तरफ नाकाबिल ए फरामोश दीनी खिदमत अंजाम दी तो दूसरी तरफ सियासी मैदान में अंग्रेज़ो और मराठों के ज़ुल्म वा सितम से मुल्क को निकालने के लिए बहुत ज़्यादा कोशिशें की, उन्हीं की दरस वा तदरीस का ये असर था के शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिज देहलवी ने फिरंगी ज़ुल्मो के नीचे दबे हुए हिन्दुस्तानियों को जिहाद के लिए आमादा किया,
हजरत मौलाना शाह वलीउल्ला मुहादिस देहलवी की वफात के बाद शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहडिस देहलवी आपके जानशीन मुकर्रर हुए, उस वक़्त आपकी उम्र सिर्फ 17 साल थी ये एजाज आपको बेटे की बिना पर नहीं बल्कि अहलियत वा लियाकत की वजह से मिला उसका सबूत आपकी अज़ीम उस शान ख़िदमात हैं,
हिन्दुस्तान में जब तवायफ उल मुलुकी के नतीजे में चिटगांव से लेकर दिल्ली तक अंग्रेज़ की तूती बोलने लगा था जब गद्दार ए वतन मीर सादिक वगेरह की अंग्रेजों के साथ खूफिया साजिश के नतीजे में शहीद टीपू सुल्तान को शरफ ए शहादत हासिल हुई तो ये मर्द ए मुजाहिद 4 मई 1791 को जानबहक हो गया,
1803 में जब दिल्ली पर अंग्रेज़ का कब्ज़ा हो गया और नाजुक हालात में मुसलमान मुख्तलिफ उल ख्याल हो गए , कोई अंग्रेज़ो से जिहाद को जायज कहता कोई नाजायज,
लेकिन शाह अब्दुल अज़ीज़ के उकाबी निगाहों ने फिरंगी शातिराना चालों को भांप लिया और ये फतवा जारी किया के तमाम मुहिब्ब ए वतन का फ़र्ज़ है के गैर मुल्की ताकत से ऐलान ए जंग करके उनको मुल्क बदर किए बैगैर ज़िंदा रहना अपने लिए हराम जानें और उन्हीं की मुनज़्ज़म कयादत और मुताक़िदीन में से वह उलेमा ए अहले हदीस शामिल हुए जिन्होने अंग्रेज़ की ईंट से ईंट बजा दी और हिन्दुस्तान आजादी से शरफ याब हुआ, उनके खून से अब तक हिन्दुस्तान की दर ओ दीवार लाल रंग हैं, दरसअल आजादी हिन्द उलेमा ए अहले हदीस की ही मरहूम ए मिन्नत है,
टल ना सकते थे अगर जंग में उड़ जाते थे।
पांव शेरों के भी मैदान में उखड़ जाते थे।
सबसे पहले तहरीक को लब्बैक कहने वाले हज़रत मौलाना अब्दुल हई शाह अब्दुल अज़ीज़ के भांजे , और हज़रत मौलाना शाह इस्माईल हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ के भतीजे और हज़रत शाह इशहाक शाह अब्दुल अज़ीज़ के नवासे थे, शाह अब्दुल अज़ीज़ रहमतुल्लाह ने ही मौलाना शाह अब्दुल हई साहब को शेख उल इस्लाम और शाह इस्माईल को हुज्जत उल इस्लाम का लकब अता फरमाया था,
तहरीक शहीदैन जिसे हम तहरीक अहले हदीस कहते हैं से भी मौसूम कर सकते हैं के ये हिन्दुस्तान में सब से पहली इस्लामी तहरीक थी जिसे शाह इस्माइल शहीद और सय्यद अहमद शहीद ने बरपा किया था, ये तहरीक ख़ास कर अंग्रेज़ की हुकूमत का खात्मा करने और हिन्दुस्तान में खिलाफत मनहज ए नुबुव्वाह बरपा करने के लिए पैदा हुई थी, इस तहरीक ने सबसे पहले फुरूवन ला ईलाहा इल्लल्लाह का नारा लगाया ये नारा क्या था एक बांग दरा था जिसने सुना मदहोश हो गया जिस पर नजर पड़ी वह इस्लाम का खादिम बन गया, जिहाद की दावत दी गई तो उलेमा ने मस्नद ए दरस छोड़ दी, इमामों ने मस्जिदों के मुसल्ले माजूरों के हवाले कर दिए, मालदारों ने अपनी कोठियां छोड़ दी, गुलामों ने अपने आकाओं को सलाम कह दिया, लेकिन अफसोस को शाहिदैन की तहरीक कामयाबी की इतनी मंजिलें ना तय कर पाई जितनी उम्मीद थी के नाम निहाद मुस्लिम अफ़ग़ान सरदारों की गद्दारी की वजह से, फिर बालाकोट का सानहा पेश आ गया और इस राह ए हक के दोनों मुजाहिद जाम ए शहादत नोश फरमा गए, इन्ना लिल्लाही वा इन्ना इलैही राजीऊन !!
तारीख गवाह है कि जंग बालाकोट के बाद जब मुल्क पर उदासी छा गई , जमात तितर बितर हो गई, अच्छों के कदम लड़खड़ा उठे और करीब था के जिहाद का सारा काम दरहम बरहम हो जाता लेकिन अजीमाबाद पटना मुहल्ला सादिकपुर के एक फर्द ने ये गिरता हुए अलम जिहाद को ताहयात अपने सीने से लगाए रखा और हिन्दुस्तान की ज़मीन की अपने खून वा जिगर से उसकी इस अंदाज़ में आब्यारी की जिसे बयान करने के लिए इस्लामी हिन्द की पूरी तारीख इसकी मिसाल पेश करने से कासिर है, आपकी वफात के बाद आपके भाई मौलाना इनायत अली सादिकपुर ने इस फ़रीजा को संभाला, उसके बाद लश्करी कियादत मौलाना विलायत अली के फरजंद रशीद मौलाना अब्दुल्लाह अज़ीमाबादी के हाथों में अाई, उन्होंने अमीर उल मुजाहिदीन की हैसियत से 40 साल तक ख़िदमात अंजाम दी, फिर उनके बाद उनके छोटे भाई मौलाना अब्दुल करीम साहब जाननशीन मुकर्रर हुए,
फिर उनके बाद मौलाना अब्दुल्लाह साहब अज़ीमाबादी के पोते मौलाना नेमातुल्लाह अमीर उल मुजाहीदीन रहे फिर रहमतुल्लाह साहब अमीर नामजद हुए, उनके इलावा उस दौर के दूसरे मुजाहीदीन में मौलाना याहया अली अजीमाबादी, मौलाना अहमद अल्लाह सादिकपुर, मौलाना जाफर थनेसरी वगेरह का नाम आता है, जिन्हें तहरीक आजादी के सरगर्म रुकन होने के जुर्म में कालापानी की दर्दनाक साज़ाएं काटनी पड़ी,
हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है।
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा वर पैदा।
1857 ईसवी की तहरीक ए आजादी में भी अहले हदीस आलिम मौलाना इनायत अली सादिकपुर शरीक थे, उन्होंने तारीख इलाका सरहद में महाज कायम करके जंग शुरू की थी मौलाना ज़फ़र साहब थानेसरी इस हंगामे में चंद साथियों को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने कि गरज से दिल्ली गए थे फिर 1857 के बाद से 1947 तक मुल्क की कोई भी सियासी तहरीक ऐसी नहीं जिसमें उलेमा ए अहले हदीस ने या उनके लोगों ने हिस्सा ना लिया हो,
मौलाना अब्दुल कादिर कसूरी
मौलाना मुहम्मद अली कसूरी
मौलाना मोहिउद्दीन कसूरी
मौलाना सय्यद मुहम्मद दावूद गजनवी
मौलाना मुहम्मद अली लखवी
मौलाना अब्दुल्लाह अहरार
मौलाना अबुल वफ़ा सनाउल्लाह अमृतसरी
मौलाना इब्राहीम मीर सियालकोट
मौलाना हाफ़िज़ मुहम्मद मुहड्डिज गोंडोलवी
मौलाना अबुल कासिम सैफ बनारसी
मौलाना अबुल कासिम मुहम्मद अली मऊ
मौलाना मुहम्मद नोमान मऊ,
मौलाना मुहम्मद अहमद मुदरिस मऊ
मौलाना हाफ़िज़ अब्दुल्लाह गाजीपुरी
मौलाना अब्दुल अज़ीज़ रहीमाबादी,
मौलाना मुहम्मद इदरीस खान बदायूंनी
मौलाना फजलुल्लाह वजीराबाद
मौलाना अब्दुल रहीम उर्फ मौलाना मुहम्मद बशीर,
वली मुहम्मद फुतुही वाला
दिल्ली में पंजाबी अहले हदीस
कलकत्ता में कपड़े और लोहे के ताजिर,
मद्रास में काका मुहम्मद उमर
बंगाल में मौलाना अब्दुल्लाह काई
मौलाना अब्दुल्लाह अल बाक़ी
मौलाना अहमद अल्लाह खान
गाजी शहाबुद्दीन , वगेरह
ऐसे नामों कि एक लम्बी फेहरिस्त ऐसे उलेमा अहले हदीस की है जिनका जंग ए आजादी मे हिस्सा लेना एक नाकाबिल ए इनकार हकीकत है,
मौलाना सय्यद अहमद शहीद और मौलाना इस्माईल शहीद की मुजाहिदाना कोशिशों ने मुसलमानों को जिहाद पर माइल किया और जंग ए आजादी का अलम लहराया, हिमालय की चोटियों और खलीज बंगाल की तराई से लोग जूक दर जूक इस अलम के नीचे जमा होने लगे, इस मूजाहिदाना कारनामा की आम तारीख मालूम हो के इन मुजाहीदीन ने सरहद पार करके सिखों का मुकाबला किया और शहीद हो गए हालांकि ये वाकिया उसकी पूरी तारीख का सिर्फ एक हिस्सा है,
मौलाना जफर साहब थनेसारी लिखते हैं के
" जब के सय्यद अहमद शहीद हज़्ज से वतन वापस आ गए तो सफर जिहाद की तैयारी में मशगूल हो गए मौलाना मुहम्मद इस्माईल शहीद और मौलवी अब्दुल हई वगेरह जिहाद के मजामीन बयान करने और तर्गीब दिलाने के लिए हिन्दुस्तान में हर जगह रवाना हुए, उस वक़्त सय्यद अहमद साहब के मकान पर तलवार वा बंदूक की सफाई और घुड़दौड़ हुआ करती थी और वह दरवेश सिपाही बन गया था तस्बीह की जगह हाथ में तलवार और फराख जुब्बा की जगह चुस्त लिबास ने ले ली, उन दिनों में जो कोई तोहफा या तहैफ आप के पास लेकर आता तो अक्सर हथियार या घोड़े होते, उन्हीं दिनों में शेख फरजंद अली साहब गाजीपुरी जमानिया से दो निहायत उम्दा घोड़े और बहुत से वर्दी के कपड़े और 40 जिल्द क़ुरआन तोहफे में लेकर आए, और सबसे अजीब तोहफा वो जो शेख साहब लेकर आए वह अमजद नामी उनका एक नौजवान बेटा था, जिसको उन्होंने मिसल हज़रत इब्राहीम खलील अल्लाह की राह ए खुदा में नज़र करने सय्यद साहब के हवाले कर दिया और कहा के इसको अपने साथ ले जाएं और तेज़ कुफ्फार से इसकी कुर्बानी कराएं, शेख फरजंद अली की ये नजर अल्लाह ने कुबूल की उनका साहब ज़ादा शेख अमजद सिखों से लड़ते हुए बालाकोट के मारके में शहीद हो गया"
ये वाक्या मैंने सिर्फ जिहाद और उसके खूलूस की सबूत के तौर पर पेश किया है इसका ये मतलब नहीं के उलेमा ए अहले हदीस सिर्फ सिखों से लड़ाई कर रहे थे, उनको हिन्दुस्तान की आज़ादी और अंग्रेजों से मुकाबला की कोई ज़रूरत ना थी जैसा कि सय्यद साहब और मौलाना इस्माईल शहीद की तहरीक जिहाद के मुताॅलिक बाज़ उलेमा की तहरीरों में ये गलतफहमी पैदा कर दी है के वह सिर्फ सिखों के खिलाफ थे सय्यद साहब अंग्रेजों से ना लड़ना चाहते थे और अंग्रेज़ी इकतेदार और तसल्लत से उनको कोई तशवीश ना थी अंग्रेज़ के कब्जे से उसी मुल्क को आज़ाद करा लेना सय्यद साहब के खतों से साफ अल्फ़ाज़ में साबित किया है के उन लोगों के खयालात बिल्कुल ग़लत हैं,
मौलाना मुहम्मद ज़फ़र ठानेसरी को अंग्रेजों ने महज इस वजह से के वह सय्यद साहब की मुताकिदीन में से थे उनको बड़ी तकलीफ दी, घर बार लूट लिया और 18 साल कालपानी की अजियत नाक सजा दी, उनकी कुर्बानियों के सामने हर शख्स का सर एहतेराम से खम हो जाता है,
शेख उल कुल मियां नज़ीर हुसैन मुहद्ददिस देहलवी जो उलेमा ए अहले हदीस के सुरखील और सरताज थे सिर्फ अहले हदीस होने की बुनियाद पर अंग्रेज़ी मुकद्दमात की लपेट में आए उनकी मकान वा मस्जिदों की तलाशी ली गई रावलपिंडी की जेल में एक साल तक नजरबंद रखे गए, दरअसल अंग्रेज़ को किसी तंजीम वा जमात से खतरा था तो वह सिर्फ अहले हदीस ही की जमात और उसके उलेमा वा मशाईख थे और इसी वजह से रावलपिंडी की जेल में मियां सहाब पर जबर किया जाता था के वह उन अराकीन अहले हदीस के नाम ज़ाहिर कर दें जो उस बागियाना तहरीक में शामिल थे मगर इस्तकलाल का पहाड़ बने रहे,
सहाफत के मैदान में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने " अल हिलाल" और " अल बलाग" के जरिए पूरे मुल्क में हिन्दुस्तानियों के दिलों को अंग्रेज़ो कि गुलामी से आज़ाद कराने की सोच बख्शी और उसी आजादी ही की खातिर मौलाना को बार बार जेल का मुंह देखना पड़ा, उन्होंने इस मुल्क को आज़ाद कराने में अपनी ज़िन्दगी वकफ़ कर दी,
गरज ये के उन अहले हदीस उलेमा ने अपनी तकरीरों, शुजातों और इल्म खुतबाओ से मुसलमानों को ख्वाब ए गफलत से झिंजोड़ा और उनमें आजादी का हौसला बेदार किया जिसके नतीजे में मुसलमानों ने अंग्रेजों की सम्राजियत का खात्मा कर दिया और अंग्रेजों को इस बात का अंदाज़ा हो चुका था के उलेमा अहले हदीस ही कौम के वो बाजू है जिनके इशारे पर हर फर्द दिल ओ जान कुरबान कर देने के लिए तैयार हो जाता है, उसने सारा अपना सम्राजी इक्तेदार कायम करते वक़्त सबसे ज़्यादा ज़ुल्म वा सितम उलेमा ए हक पर तोड़ा,
ये थे हमारे सलफ !!
ये मजमून जमीयत अहले हदीस से लिया गया है