Friday, October 2, 2020

AZAMGARH KA HINDU KAISE MADEENA UNIVERSITY AUR MASJID E NABAWI KA ALIM WA DAEE BAN GAYA




आजमगढ़ का हिन्दू कैसे मदीना यूनिवर्सिटी और मस्जिद ए नबवी का आलिम वा दाई बन गया,
साभार: डॉक्टर लुबना ज़हीर
ये 2005 का ज़माना था, रोज़नामा नवा ए वक़्त में मारूफ कालम निगार इरफान सिद्दीकी साहब का एक कालम बाउन्वान " गंगा से ज़म ज़म तक " शाए (Publish) हुआ,
कालम में उन्होंने भारत के एक कट्टर हिन्दू नौजवान का ज़िक्र किया था, इस्लामिक शिक्षा से प्रभावित हो कर जिसने इस्लाम क़ुबूल किया, नौजवान पर इस क़दर अल्लाह का एहसान हुआ के वह दिल ओ जान से इस्लामी तालीमात की जानिब रागिब हो गया,
मदीना मुनव्वारा और मिस्र की जामियात से तालीम हासिल करने के बाद शोबा ए तदरीस का इल्म हासिल किया,
सऊदी अरब के मदीना यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और डीन के ओहदे तक जा पहुंचा, रिटायरमेंट के बाद तहकीक इस्लामी में जुट गया, अरबी और हिंदी में दर्ज़नो किताबें लिख डाली, उन किताब का तर्जुमा दुनिया के मुख्तलिफ मुमालिक के दीनी मदरसों के सिलेबस का हिस्सा है, इस कद्र बा साआदत ठहरा के मस्जिद ए नाबवी में हदीस का दरस देने लगा, कुफ्र के अंधेरों से निकल कर इस्लाम के रोशन रास्तों पर आने वाले प्रोफेसर डॉक्टर जियाउर्रहमान आजमी के सफर साआदत के बारे में लिखा गया ये कालम मेरी याददाश्त से कभी भी बोझल नहीं हो सका,
इस बार उमरा पर जाते वक्त मैंने हज्ज वा उमराह की दुआओं और इस्लामी तारिख से मूतालिक (Related) कुछ किताबें अपने सामान में रख ली थी, एक किताब जो आखिरी वक़्त पर मैंने अपने साथ ली वह इरफान सिद्दीक़ी साहब की " मक्का मदीना" थी, मैं इस किताब के पन्ने पलटने में मशरूफ थी, अचानक पंद्रह साल पहले लिखा गया कालम " गंगा से ज़म ज़म तक " आंखों के सामने आ गया, एक बार फिर मुझे डॉक्टर जियाउर्रहमान आज़मी और उनकी ज़िंदगी का सफर याद आ गया,
अम्मी को मैं उनके कुबूल ए इस्लाम का किस्सा बताने लगी, बा आवाज़ बुलंद कालम भी पढ़ कर सुनाया, कालम पढ़ने के बाद उनके बारे में सोचने लगी, उंगलियों पर गिनकर हिसाब लगाया के अब उनकी उम्र कम से कम 77 बरस होगी, ख्याल आया ना जाने अब उनकी सेहत और तहकीकी सरगर्मियों की लगन मुकम्मल होगी भी या नहीं, दिल में ख्वाहिश उभरी के काश मैं उनसे मुलाकात कर सकूं, एक इल्मि वा अदबी सख्सियत से राब्ता किया और ये ख्वाहिश जाहिर की,लेकिन उनका जवाब सुनकर मुझे बेहद मायूसी हुई,
कहने लगे आज़मी साहब उमूमी तौर पर मेल मुलाकातों से इंतेहाई दूर रहते हैं, खवातीन से तो गालीबन बिल्कुल नहीं मिलते जुलते, इंतेहाई मायूसी के आलम में ये गुफ्तगू खतम हुई, लेकिन अगले दिन उन्होंने खुशखबरी सुनाई के आज़मी साहब से बात हो गई है, हिदायत दी है कि मैं फोन से उनसे राब्ता कर लूं,
ज़िन्दगी में मुझे बहुत से नामूर दीनी, इल्मे , अदबी और दीगर सखसियात से मुलाकात और गुफ्तगू के मौके मिले हैं, खुसूसी तौर पर भारी भरकम सियासी सख्सियात, प्रोटोकॉल जिनके आगे पीछे बंधा रहता है, लोग जिनकी खुशनूदी हासिल करने के लिए बिछे जाते हैं, एक लम्हे के लिए मैं किसी शख्सियत से मरऊब हुई, ना किसी के ओहदे , रुतबे और मर्तबे का रुआब वा दबदबा मुझ पर कभी तारी हुआ, लेकिन डॉक्टर जियाउर्रहमान आज़मी को टेलीफोन काल मिलाते वक़्त मुझ पर घबराहट तारी थी,
दिल की धड़कने बढ़ रही थी, उनसे बात करते मेरी ज़बान कुछ लड़खड़ाई और आवाज़ कपकपा गई, अर्ज़ किया के बरसों पहले एक कालम से आपके बारे में तारूफ हुआ था, बरसों से में आपके बारे में सोचा करती हूं,
बरसों से ख्वाहिश है कि आपसे शरफ ए मुलाकात हासिल हो सके, निहायत आजिज़ी से कहने लगे मैं कोई ऐसी बड़ी शख्सियत नहीं हूं, जब चाहे घर चली आएं,
अगले दिन बाद नमाज़ ए इशा मुलाकात का वक़्त तय हुआ, निहायत फराख़ दिली से कहने लगे आपको अगर रास्तों का पता ना हो तो मेरा ड्राइवर आपको लेने पहुंच जाएगा, शुक्रिया के साथ मैंने अर्ज़ किया के मैं खुद वक़्त पर हाज़िर हो जाऊंगी, इसके बाद मैं बेताबी से अगले दिन का इंतज़ार करने लगी, इससे पहले में उस मुलाकात के हालात लिखूं, काराइन (Readers) के लिए प्रोफेसर डॉक्टर जियाउर्रहमान आज़मी के क़ुबूल ए इस्लाम की मुख्तसर दास्तान बयान करती हूं,
1943 ईसवी में आजमगढ़ (हिन्दुस्तान) के एक हिन्दू घराने में एक बच्चे ने जन्म लिया, मा बाप ने उसका नाम बांके राम रखा, बच्चे का बाप एक खुशहाल कारोबारी सख्स था, आजमगढ़ से कलकत्ता तक उसका कारोबार फैला हुआ था, बच्चा सारी सहूलियतों से भरपूर ज़िन्दगी गुजारते हुए जवान हुआ, वह शिबली कॉलेज आजमगढ़ में तालीम ले रहा था, किताबों के मुताले से हुए फित्री रघबत (शौक) थी एक दिन मौलाना मौदुदि की किताब दीन हक का हिन्दी तर्जुमा उसके हाथ लगा, निहायत ही ज़ौक वा शौक से उस किताब का मुताला किया, बार बार पढ़ने के बाद उसे अपने अंदर कुछ तब्दीली और अज़तराब महसूस हुआ, उसके बाद उसे ख्वाजा हसन निजामी का हिंदी तर्जुमा क़ुरआन पढ़ने का मौका मिला,
नौजवान का ताल्लुक एक ब्राह्मण हिन्दू घराने से था, कट्टर हिन्दू माहौल में उसकी तरबियत हुई थी, हिन्दू मजहब से उस ख़ास लगाओ था बाक़ी मजहब को वो हक पर नहीं समझता था , इस्लाम का मुताला शुरू किया तो क़ुरआन कि ये आयात उसकी निगाह से गुजरी,
" अल्लाह के नजदीक पसंदीदा दीन इस्लाम है"
उसने एक बार फिर हिन्दू धर्म को समझने की कोशिश की, अपने कॉलेज के उस्ताद जो गीता और वेदों के एक बड़े आलिम थे उनसे रुजू किया, उनकी बातों से मगर उस का दिल मुत्मइन नहीं हो सका, शिबली कॉलेज के एक उस्ताद हफ्ता वार क़ुरआन का दरस दिया करते थे, नौजवान की जुस्तजू को देखते हुए उस्ताद ने उसे हलका ए दर्स में शामिल होने की खुसूसी इजाज़त दे दी,
सय्यद मौदुदी की किताबों के मुसलसल मूताले और दर्स क़ुरआन में मुकम्मल शामुलियत ने नौजवान के दिल को क़ुबूल ए इस्लाम के लिए कायल वा मआयेल कर दिया, परेशानी मगर ये थी के मुसलमान होने के बाद हिन्दू खानदान के साथ किस तरह गुज़ारा हो सकेगा, अपनी बहनों के मुस्तकबिल (Future) के मुताॅलिक भी वह फिक्रमंद था, यही सोचें इस्लाम क़ुबूल करने की राह में हायल थी,
एक दिन दरस क़ुरआन को क्लास में उस्ताद ने सूरत अंकाबूत की ये आयात पढ़ी
" जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर दूसरों को अपना कार साज़ बना रखा है, उनकी मिसाल मकड़ी सी है जो घर बनती है और सबसे कमजोर घर मकड़ी का होता है, काश लोग (हकीकत से ) बाखबर होते "
इस आयत और उसकी तशरीह ने बांके राम को झिंझोड़ कर रख दिया उसने तमाम सहारों को छोड़ कर सिर्फ अल्लाह का सहारा पकड़ने का फैसला किया और फौरी तौर पर इस्लाम क़ुबूल कर लिया, उसके बाद उसका ज़्यादातर वक़्त सय्यद मौदुदी की किताबें पढ़ने में लगता, नमाज़ के वक़्त खामोशी से घर से निकल जाता और किसी अलग थलग जगह पर अदायगी करता, चंद माह बाद बाप को खबर हुई तो उन्होने समझा के लड़के पर जिन्न वा भूत का साया हो गया है,
पंडितो पुरूहितो से इलाज करवाने लगे जो चीज वह पंडितो पुरुहितो से लाकर देते ये बिस्मिल्लाह पढ़कर खा लेते, मर्ज के इलाज में नाकामी के बाद घरवालों ने उन्हें हिन्दू मजहब की अहमियत समझाने और दीन ए इस्लाम से हटाने का बहुत इंतजाम किया, जब कोई फायदा ना हुआ तो रोने धोने और मिन्नत समाजत का सिलसिला शुरू हुआ, उससे भी बात ना बन सकी तो घरवालों ने भूख हड़ताल का हर्बा इस्तेमाल किया, मा बाप और भाई बहिन उसके सामने भूख हड़ताल से निढाल पड़े सिसकते रहते, उसके बाद घरवालों ने मार पीट और ताशद्दुद का रास्ता इख्तियार किया, अल्लाह ने मगर हर मौके पर उसे दीन हक पर इस्तेकामत बख्शी,
उसने तमाम रुकावटों और मुश्किलात को नजरंदाज किया, हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ दीनी मादारिस में तालीम हासिल की, उसके बाद मदीना मुनव्वरा की जामिया इस्लामिया ( मदीना यूनिवर्सिटी) में दाखिल हो गया, जामिया तुल मलिक अब्दुल अज़ीज़ (जामिया उममुल कुरा - मक्का मुकर्रमा) से एम ए किया, मिस्र की जामिया अजहर काहिरा से पी एच डी की डिग्री हासिल की,
आजमगढ़ के कट्टर हिन्दू घराने में आंख खोलने वाला ये बच्चा दुनिया ए इस्लाम का नमूर मुफक्किर , मुहक्किक, मुसन्नीफ, और मुबल्लिग बन गया,
उन्हें डॉक्टर प्रोफेसर जियाउर्रहमान आज़मी के नाम से जाना जाता है, उनकी किताबें हिंदी, उर्दू, अग्रेजी, मलय, तुर्क और दीगर जबानो में छप चुकी हैं
इंतेहाई साआदत है कि डॉक्टर साहब ने सही हदीस को मुरत्तब करने की एक इंतेहाई भारी भरकम तहक़ीक़ी काम का बेड़ा उठाया और बरसों कि महनत के बाद उसे मुकम्मल किया, ऐसा काम जो बड़ी बड़ी जामीयात और तहक़ीक़ी ईदारे नहीं कर सके एक आदमी ने अकेले कर डाला, गुजश्ता कई बरसों से वह मस्जिद नबावि में हदीस का दरस देते हैं,
अल्लाह रब्बुल इज्जत ने उनसे रुए ज़मीन पर बेशुमार नेमत नाजिल फरमाई हैं, इन तमाम में सबसे अज़ीम और अनमोल ईमान की नेमत है, सुरः हुजरात में फरमान ए इलाही है के दरअसल अल्लाह का तुम पर एहसान है के उसने तुम्हे ईमान कि हिदायत की, सुरा अनाम में फरमान ए रब्बानी है
" जिस शख्स को अल्लाह ताला रास्ते पर डालना चाहे उसके सीने को इस्लाम के लिए कुशादा कर देता है"
उस शाम में तय शुदा वक़्त के मुताबिक प्रोफेसर डॉक्टर जियाउर्रहमान आज़मी से मुलाकात के लिए रवाना हुई तो क़ुरआन कि ये आयात मुझे याद आ गई , ख्याल आया कि अल्लाह के इनाम और एहसान की इंतेहा है कि उसने हिन्दू घराने में पैदा होने वाले को सिरात ए मुस्तकीम के लिए मुंतखब किया, उसे बांके राम से डॉक्टर जियाउर्रहमान आज़मी बना दिया, मदीना यूनिवर्सिटी और मस्जिद नबवि में हदीस का मुअल्लिम् और मुबल्लीग की कुर्सी पर ला बिठाया,
डॉक्टर साहब का घर मस्जिद नाबवि से कुछ मिनट की दूरी पर है, घर पहुंचे तो आजमी साहब इस्तकबाल के लिए खड़े थे, निहायत शफककत से मिले, कहने लगे आप पहले घरवालों से मिल लीजिए चाय वगेरह पीजिए, उसके बाद नशिश्त होती है,
मेहमान खाना में दाखिल हुए तो उनकी बेगम सामने थीं , मुहब्बत और तपाक से मिलीं, कुछ देर बाद उनकी दोनो बहुएं चाय और दीगर खाने का समान थामे चली आई, कुछ देर बाद उनकी बेटी भी आ गई,
उसके बाद घर में मौजूद तमाम छोटे बच्चे भी उनकी बेगम ने जामिया कराची से एम ए कर रखा है, कहने लगीं पी एच डी में दाखिला लेने का इरादा था लेकिन शादी हो गई, मैंने सवाल किया डॉक्टर साहब हिन्दुस्तानी थे जबकि आप पाकिस्तानी शादी कैसे हो गई ??
कहने लगीं के मेरे मामू मदीना यूनिवर्सिटी से मुंसलिक थे आज़मी साहब से उनको मेल मुलाकात रहती थी, बताने लगीं के आजमी साहब इस क़दर मसरूफ रहा करते थे कि मेरी पढ़ने लिखने की गुंजाइश नहीं निकलती थी, अलबत्ता चंद साल पहले मैंने हिफ़्ज क़ुरआन की साआदत हासिल की, तीनों बच्चे इशाअत दीन की तरफ नहीं आए, उनका खयाल था जितना काम उनके वालिद ने किया है उस क़दर वह कभी नहीं कर सकेंगे, यही सोचकर वह मुख्तलिफ शोबों में चले गए, फिर कहने लगीं आप किसी भी शोबो में हो अल्लाह के बंदों की खिदमत करके अपनी आखिरत सवार सकते हैं,
आधे घंटे के बाद आज़मी साहब का बुलावा आ गया, उनके लाइब्रेरी नुमा दफ्तर का रुख किया, इब्तेदाई तारूफ के बाद कहने लगे के मेडिया और दीगर लोग इंटरव्यू वगेरह के लिए राब्ता करते हैं, मैं अपनी ज़ाती तशहीर से घबराता हूं, दरख्वास्त करता हूं मेरी ज़ात के बजाए मेरे तहक़ीक़ी काम की तशहीर की जाए ताकि ज़्यादा से यादा लोग उससे आगाह और फायदा उठा सकें, फिर अपनी किताबें दिखाने और तहक़ीक़ी काम की तफ़सीलात बताने लगे, उनकी तहकीक और दर्ज़नो तस्नीफ की मुकम्मल तफसील के लिए कई सफात दरकार है,
लेकिन एक तस्नीफ ( बल्कि अज़ीम कारनामा) का मुख्तसर तस्किरा काबिल ए बयान है, डॉक्टर साहब ने 20 साल की मेहनत के बाद ' अल जामिया तुल कामिल फिल हदीस अल सहिह उल शामिल " की सूरत एक अज़ीम उस शान इलमि और तहक़ीक़ी मंसूबा पाए तकमील तक पहुंचाया है, इस्लाम की 1400 तारीख में ये पहली किताब है जिसमें रसूल अल्लाह सल्लल्लहू अलैहि वसल्लम की तमाम सही हदिसो को मुख्तलिफ कुतुब ए हदीस से जमा किया और एक किताब में इकट्ठा कर दिया गया है,
"अल जामिया उल कामिल " 16000 सही हदीस पर मुस्तमिल है, उसके 6000 अबवाब हैं (Chapter), उसका पहला एडिशन 12 जबकि दूसरा एडिशन इज़ाफ़ा के साथ 19 जिल्दो पर मुश्तमिल है,
आज़म साहब ने बताया के कम ओ बेस 25 साल मैं बतौर प्रोफेसर दुनिया के मुख्तलिफ मुमालिक के दौरे करता रहा, अक्सर ये सवाल उठता के क़ुरआन तो एक किताबी शक्ल में मौजूद है, मगर हदीस की कोई ऐसी किताब बताएं जिसे तमाम हदीस इकट्ठा हो जिससे फायदा उठाया जा सके, सदियों से उलेमा ए किराम और मुबल्लिगीन से गैर मुस्लिम ये सवाल किया करते, मगर किसी के पास उसका बेहतर जवाब ना होता , मुझे ये भी सवाल दरपेश रहते लिहाजा मैंने हदीस की एक किताब मुरत्तब करने का बीड़ा उठाया ,
उन्होने बताया 2 एडिशन में 99 फीसद हदीस आ गईं हैं, 100 फीसद कहना इसलिए दुरुस्त नहीं के 100 फीसद सिर्फ अल्लाह की किताब है, इंतेहाई हैरत से इस्तफसार किया के इस कद्र पेचीदा काम आपने अकेले कैसे अंजाम तक पहुंचाया , कहने लगे " लगन और जुस्तजु " हो तो वह काम नामुमकिन नहीं रहता, सवाल किया इस कद्र भारी भरकम तहकीक के लिए आप दीन रात काम में जुटे रहते होंगे ??
कहने लगे 18-18 घंटे काम किया करता था, सुबह सवेरे काम का आगाज़ करता और रात दो ढाई बजे तक मसरूफ रहता, बताने लगे के ये वसी वा अरीज़ घर जो आप देख रहीं हैं,
ये सारा घर एक लाइब्रेरी की तरह था, हर तरफ किताबें ही किताबें थी , यूं समझिए मैंने एक लाइब्रेरी में अपनी चारपाई डाल रखी थी, जब तहक़ीक़ी काम मुकम्मल हो गया तो मैंने तमाम किताबें अतिया ( डोनेट) कर दी, खानदान का साथ ना मिलता तो मैं ये काम नहीं कर सकता था, कंप्यूटर की तरफ इशारा करके बताने लगे के मैं इसे इस्तेमाल नहीं कर सकता, दशकों से मामूल है कि अपने हाथों से लिखता हूं, कोई ना कोई शार्गिद मेरे साथ जुड़ा रहता है, वह कंपोजिंग करता है,
डॉक्टर आज़मी साहब हिंदी और अरबी ज़बान में बीसियों किताबें लिख चुके हैं, उनकी किताबों के तर्जुमा दर्ज़नो जबानों में छपते हैं, सऊदी अरब और दीगर मुमालिक के जामियात और दीनी मदारिस में उनकी किताब पढ़ाई जाती हैं, कहने लगे निहायत ही तकलीफ़ वाली बात है के मुसलमानों ने हिन्दुस्तान में कम ओ बेस आठ सदियों तक हुकूमत की बादशाहों ने आलीशान इमारत तामीर करवाए, ताहम गलती ये हुई के उन्होंने अपने हम वतन गैर मुस्लिम को इस्लाम की तरफ रागिब करने के लिए इशात दीन का काम नहीं किया, हिन्दुओं की किताबों का फारसी और संस्कृत में तर्जुमा करवाया, मगर क़ुरआन वा हदीस का हिंदी तर्जुमा नहीं करवाया, अगर मुसलमान हुकमरा ये काम करते तो यकीन जाने आज सारा हिन्दुस्तान मुसलमान हो चुका होता,,
( इन दिनों भारत में मुसलमानों को शहरियत से महरूम करने की साजिश उरूज़ पर थी) कहने लगे के अगर हिन्दुस्तान के मुसलमान हुक्मरानों ने इशाअत दीन का फरीजा अंजाम दिया होता ,तो आज ये नौबत ना आती, भारत में 80 करोड़ हिन्दू बसते है, मिशन मेरा ये है के हर हिन्दू घराने में क़ुरआन वा हदीस की किताब पहुंचे यही सोच कर मैं हिंदी ज़बान में लिखता हूं,
इसी मकसद के लिए डॉक्टर साहब ने हिंदी ज़बान में" क़ुरआन मजीद की इनसाइक्लोपीडिया " की तस्नीफ फरमाई, लगभग 10 साल में ये काम मुकम्मल हुआ, ये किताब क़ुरआन मजीद के तकरीबन 600 मौजू पर मुश्तामिल है, तारीख हिन्द में ये अपनी दर्जे कि पहली किताब है जो इस मौजू पर लिखी गई, ये किताब भारत में काफी मकबूल है अब तक इसके आठ एडिशन शाए हो चुके हैं, कुछ साल पहले इसका उर्दू और अंग्रेजी तर्जुमा भी मुकम्मल हो चुका है,
सवाल किया के आप को किताबो से हिन्दू और दीगर गैर मुस्लिम प्रभावित होते हैं ?? कहने लगे जी हां ! खबरें आती रहती हैं कि मेरी फलां फलां किताब पढ़ने के बाद फलां फलां गैर मुस्लिम हल्का बगोश इस्लाम हो गए,
कम से कम बीस साल से उन्होने कोई सफर नहीं किया, कहने लगे लाइब्रेरी से कहीं दूर जाने को जी नहीं चाहता, किताबो से दूर होता हूं तो घबराहट होने लगती है, मालुम किया आज कल क्या मसरूफयत है?
कहने लगे कुछ तहक़ीक़ी काम जारी है, पिछले आठ दस साल से मस्जिद ए नबावीं में हदीस का दरस देता हूं, पहले सही बुखारी वा सही मुस्लिम के दुरूस दिए, आज कल सुनन अबू दावूद का दरस जारी है, कहने लगे मैं लेक्चर कुछ इस तरह तैयार करता हूं के शराह (कमेंट्री) तैयार हो जाए, ताकि लेक्चर मुकम्मल होने के बाद किताबी शक्ल में छप सके, मुख्तसर ये के उन्होंने दीन को नश्र ओ इशा अत को अपना ओढ़ना बिछोना बना रखा है, उनकी हर इल्म, तालीमी और तहक़ीक़ी सरगर्मियों के पीछे यही जज़्बा वा जुनून कार फरमा है,
आखिर में मुझे अपनी कुछ किताबों का उर्दू तर्जुमा इनायत किया, उन पर मेरा नाम और अरबी ज़बान में दुआइया कलिमात तहरीर फरमाए , कम से कम ढाई तीन घंटो बाद मैंने वापसी की राह ली, आजमी साहब बरामदे तक तशरीफ लाए, गाड़ी घर से बाहर निकलने तक वहीं खड़े रहे, होटल वापस लौटते वक़्त मुझे उनपर निहायत रश्क आया, खुद पर इंतेहाई नदामात हुई, ख्याल आया के एक मैं हूं, जिसे बरसों से दुनिया जहां के कामों से फुर्सत नहीं, एक ये हैं जो अर्सों से हकीकी फलाह और कामयाबी समेटने में मसरूफ हैं, दुआ की के काश मुझे भी अल्लाह का पैग़ाम समझने, उस पर अमल करने और और उसकी नश्र ओ इशाअत की तौफीक नसीब हो जाए, आमीन
साभार : डॉक्टर लुबना अज़ीज़
हिंदी तर्जुमा : Umair Salafi Al Hindi