"मैं नमाज़ पढ़ना शुरू करती हूं फिर छूट जाती है, कभी बहुत अच्छा लगता है, कभी नमाज़ सुकून देती है मगर थोड़े ही वक्त बाद बेजारियत हो जाती है, नमाज़ बोझ लगती है, मुझे अपना भारी वजूद नमाज़ के लिए उठाना मुश्किल लगता है,"
वह बहुत थके हुए लहज़े में कह रही थी, मुझे लग रहा था बात करते करते उसका सांस फूल रहा है, वह मुझे ज़ाहिरी नहीं बातिनी तौर पर थकी हुई महसूस हुई,
" नज़र का पर्दा करती हो ??" मैंने नरमी से उसे देखते हुए उससे सवाल किया , उसने हैरत से मेरी तरफ देखा , इस बात की शायद उसे तवक्को नहीं थी,
" नज़र का पर्दा?? " मैं... मैं.. तो नकाब करती हूं खुद, मैं समझी नहीं... नज़र के परदे का क्या ताल्लुक नमाज़ से...?? अल्फ़ाज़ बेतरतीब थे...
मैं मुस्कुरा दी, " ताल्लुक तो है, बहुत गहरा है" बुरी नज़र शैतान के जहरीले तीरों में से एक तीर है जो इंसान के दिल में उतर जाता है, पर्दा करना तो बहुत आसान है मगर नज़र का पर्दा कुछ मुश्किल है, जब निगाह पाक नहीं रहती ना तो इबादतों में लज्जत जाती रहती है,
जब निगाह पाक नहीं रहती तो सोच भी पाक नहीं रहती, और जब सोच खराब तो नियत खराब , और अमाल का दारोमदार तो है ही नियतों पर, तुम्हे पता है ??
इंसान जो सोचता है, देखता है, जो सुनता है वह उसके दिल पर असर रखता है, हम क्या देखते हैं, क्या सुनते हैं, क्या बात करते हैं ,कभी सोचा है ?? तुम खुद तो पर्दा करती हो तो क्या हर वह नामहरम जो तुम्हारी नज़र को अच्छा लगे , उसे पहली नज़र के बाद अपनी नफ्स की तस्कीन के लिए कितनी बार देखती हो के वह किस कदर खूबसूरत है ??
फेसबुक पर कोई गैर मुनासिब तस्वीर , कोई वीडियो, कोई बात, जब कोई नहीं देख रहा होता , तन्हाई में, मगर सिर्फ अल्लाह !! तो क्या एक बार इस पर रुकती हो ?? कभी कोई फिल्म, कोई गाना जिसमे नामहरम तो खैर छोड़ो...हमारी अपनी सनफ का भी पर्दा पूरा नहीं होता, बेख्याली में देख लेती हो ??
और फिर नमहरम हमारे इर्द गिर्द के मर्द तो नहीं है ना... ये जो टीवी पर आने वाले एक्टर्स, मॉडल, जिनकी गायबाना मुहब्बत में हम गिरफ्तार होते हैं , उन्हे गौर से देखते हैं, उनकी बॉडी, ड्रेसिंग, और लुक्स की तारीफ, ये सब नज़र का पर्दा खतम करने के बाद ही हो पाता है,
तो तुम सोचो, मैं नहीं कह रही इसका जवाब मुझे दो, अपना मुहासबा करो, इसका जवाब अपने दिल को दो, अगर इसका जवाब " हां " में आए तो समझ जाओ ये नज़र की ख्यानत तुमसे तुम्हारी इबादत की लज्जत छीन रही है, दिल को सियाह कर रही है,
ज़िना सिर्फ एक तरह का तो नहीं होता , अगर हाथ से कुछ गलत छुआ तो वो हाथ का ज़िना, ज़बान से गंदी बात कहीं तो ज़बान का ज़िना, आंखों से कुछ हराम देखा तो वह आंख का ज़िना है, नज़र की बेपरदगी दिल में ऐसा सुराख कर देती है के जिससे हमारे दिल का नूर बहता जाता है, और फिर जो लोग नज़र का पर्दा नहीं करते उनकी नमाजे उनपर भारी हो जाती हैं, अगर वह नमाज़ पढ़ भी लें तो बेदिली से पढ़ते हैं, दिल नहीं लगता , बोझ सा रहता है दिल पर , तो क्या तुम नज़र का पर्दा करती हो ??
अगर "नहीं" तो आज से अहद कर लो के करोगी, जब कभी गलती से कुछ गलत देख भी लो, अगर कभी तुम्हारा नफ्स तुम्हारे ईमान पर हावी भी हो जाए तो फौरन इस्तगफार कर लिया करो, अल्लाह की तरफ रुजू कर लिया करो , फिर तुम देखना नमाज़ों का लुत्फ , इबादतों की लज्जत और दिल का सुकून, सब तुम्हे अता कर दिया जाएगा,
और एक और बात, सुकून नमाज़ में रखा गया है के कुरआन खुद कहता है के ," बेशक अल्लाह के जिक्र से दिलों को सुकून हासिल है "
अब अगर किसी को वो सुकून महसूस नहीं होता ना , तो उसे एक मिसाल से समझो, एक बीमार सख्स है, उसको आप उसके पसंदीदा खाना लाकर दो वह नहीं खाएगा, अब वह कहे की खाने में वह लज़्ज़त नहीं है ये तो कोई बात नहीं है ना, खाने में लज्जत है, खाना वही है, मगर उसका मादा बीमार है,
इसी तरह सुकून इबादत में रखा गया है लेकिन जिसको नहीं मिलता उसे समझ जाना चाहिए के उसका दिल बीमार है, और उस दिल की सेहतयाबी का नज़र की हिफाजत से बहुत गहरा ताल्लुक है,
मैंने तहम्मुल से अपनी बात मुकम्मल करके उसकी जानिब देखा , जो बात मैने खुद एक अरसे की कोशिश, बेचैनी और अजतराब के बाद समझी थी वह उस तक पहुंचा दी थी, मुझे जवाब की जरूरत नहीं रही थी, उसकी आंखों की चमक मेरे लिए काफी थी....,
मनकूल
साभार: Umair Salafi Al Hindi
Blog: Islamicleaks