कड़वी हकीकत : आज ख्वाहिशात का पूरा ना होने का नाम गुरबत है।
मेरे ख्याल में आज इतनी गुरबत नहीं जितना शोर है, आजकल हम जिसको गुरबत बोलते हैं वह दरअसल खवाहिश पूरा ना होने को बोलते हैं,
हमने तो गुरबत के वह दिन भी देखें है के स्कूल में तख्ती पर पुताई के पैसे नहीं होते थे तो मुल्तानी मिट्टी लगाया करते थे,
स्लेट पर सियाही के पैसे नहीं होते तो नील का इस्तेमाल करते थे, स्कूल के कपड़े जो लेते थे वह सिर्फ ईद पर लेते थे, अगर किसी शादी ब्याह के लिए कपड़े लेते थे तो स्कूल कलर के ही लेते थे, कपड़े अगर फट जाते तो सिलाई करके बार बार पहनते थे, जूता भी अगर फट जाता तो बार बार उस सिलाई करवा कर पहनते थे,
और जूता " स्कूल टाइम या बाटा " का नहीं प्लास्टिक का होता था, घर में मेहमान आ जाता तो पड़ोस के हर घर से किसी से घी , किसी से मिर्च, किसी से नमक मांग कर लाते थे,
आज तो माशा अल्लाह हर घर में एक एक महीने का सामान पड़ा होता है, महमान तो क्या पूरी बारात का सामान मौजूद होता है,
आज तो स्कूल के बच्चों के हफ्ते के सात दिनों के सात जोड़े प्रेस करके घर रखे होते हैं, रोज़ाना नया जोड़ा पहन कर जाते हैं, अगर आज किसी की शादी में जाना हो तो मेहंदी बारात और वालीमा के लिए अलग अलग कपड़े और जूते खरीदे जाते हैं,
हमारे दौर में एक चलता फिरता इन्सान जिसका लिबास तीन सौ तक और बुट दो सौ तक होता था और जेब खाली।होती थी,
आज कल का नौजवान जो गुरबत का रोना रो रहा है उसकी जेब मे बीस हज़ार का मोबाइल , कपड़े कमसे कम एक हजार के , जूता कम से कम पांच सौ का ,
गुरबत के दिन तो वह थे जब घर में बत्ती जलाने के लिए तेल नहीं होता था रूई को सरसों के तेल में डूबो कर जलाते थे,
आज के दौर में ख्वाहिश की गुरबत है,
अगर किसी की शादी में शामिल होने के लिए तीन जोड़े कपड़े या ईद के लिए तीन जोड़े कपड़े ना सिला सके वह समझता है में गरीब हूं,
आज ख्वाहिशात का पूरा ना होने का नाम गुरबत है।
साभार: Umair Salafi Al Hindi
Blog: Islamicleaks.com